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________________ 117 इसके विपरीत प्रमत्त योग रूप जो भावना है, वह स्वयं ही दोष रूप है स्वाधीन होने से। वह इरादापूर्वक होनेवाली हिंसा हैं। इसलिए इसे अनुबन्धहिंसा भी कहते हैं। ऐसी हिंसा से निवृत्त होना ही अहिंसा है। (1) प्रवृति (आवश्यकताओं) को कम करना, (2) प्रतिक्षण सावधान रहना (3) कोई भूल हो जाय तो वह ध्यान से ओझल न हो सके ऐसो दृष्टि को बना लेना। (4) स्थूल जीवन की तृष्णा और उसके कारण पैदा होने वाले जो दूसरे रागद्वेषादि दोष हैं उन्हें कम करने का सतत प्रयत्न करना। __ सारांश यह है कि जिससे कठोरता-कटुता न बढ़े, सहज प्रेममय वृत्ति तथा अंतर्मुख जीवन में जरा भी बाधा न पहुंचे, तब भले ही देखने में हिंसा हो, वह दोषरहित अर्थात् अदोष है। हिंसा की चौभंगी 1. द्रव्य से और भाव से हिंसा-मन से हिंसा का संकल्प भी करे और हत्या “भी करे। 2 द्रव्य से हिंसा है, भाव से नहीं-मन में हिंसा की भावना-संकल्प न होते हुए भी हत्या हो जाना। यह हिंसा ईर्यासमिति वाले साधु को जानें । 3. भाव से हिंसा है द्रव्य से नहीं-मन में हिंसा का संकल्प है, पर हत्या कर नहीं पाता । जैसे अंधेरे में रस्सी को सांप समझकर उसे काटना आदि । 4. ड्रव्य से भी हिंसा नहीं भाव से भी हिंसा नहीं है-मन वचन काया की 'शुद्धि से शुद्ध उपयोग में रहने वाले साधु को होती है । सारांश यह है कि नम्बर 1 और 3 ये दोनों प्रकार को हिंसा -हिंसा की कोटि में आती हैं । क्योंकि यह भाव से हिंसा है । इन दोनों में जीव की हत्या का संकल्प और भावना है । इस लिये यह हिंसा है। परन्तु नं० 2 और 4 ये दोनों हिंसा की कोटि में नहीं आतीं, क्योंकि इसमें 'हिंसा का इरादा नहीं है। संक्षेप में कहें तो मन में अप्रमत्तता, वचन से अनेकान्तता तथा शरीर से अपरिग्रह तीनों के संयोग में अहिंसा का स्वरूप निहित है। साधु की अहिंसा का स्वरूप थूल सुहमा जीवा, संकप्यारंभओ अ ते दुविहा । सावराह निरावराह, सावक्खा चेव निरवक्खा ॥1॥ अर्थात्-1. जीव दो प्रकार के हैं (1) स्थूल-द्वीन्द्रिय से पश्चेन्द्रीय तक वस जीव और (2) सूक्ष्म-पृथ्वीकाय, अप (जल) काय, तेऊ (अग्नि) काय, वायुकाय तथा वनस्पतिकाय । ये पांच प्रकार के एकेन्द्रिय स्थावर जीव । 2. इनका वध दो प्रकार से सम्भव है (1) संकल्प से अर्थात् इरादे से-भावना से, प्रमाद से होने वाला प्राणवध-संकल्पजन्य हिंसा है इसे भाव हिंसा भी कहते हैं। और (2) आरम्भ से अर्थात्-बिना इरादे, बिना भावना से, बिना संकल्प से, बिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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