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________________ 112 -स्थानों की सृष्टि की और उसके योग से सब समान-धर्मियों को 'बिना संकोच और बिना भेदभाव के तथा आंमत्रित किये बिना एक स्थान में सदा एकत्रित होने का एवं उनके द्वारा अपनी विविध जीवन प्रवत्तियों को व्यवस्थित बनाने का उत्तम तथा सरल साधन मिला । मूर्तिपूजा के कारण भक्तिभावना का अभिष्ट आविर्भाव हुआ और उसके लिये साहित्य तथा संगीत-नत्य कला का अनेक अंशों में उच्च विकास हुआ। मूर्ति" पूजा ने निराधारो को आधार दिलाकर, अनाथों को सनाथ बनाकर, पापियों को 'पुण्यात्मा बना कर, मानव जाति को बहुत शांति दी है और विशेषकर जैनों को मूर्तिपूजा द्वारा तो तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, तप, विहार (भ्रमण स्थल). केवलज्ञान निर्वाण आदि के वास्तविक स्थानों को सरक्षण प्राप्त हुआ, जो दूसरों को नसीब नहीं है। मूर्तिपूजा ने प्राचीन और नवीन साहित्य की शृंखला को जोड़कर चिरस्थाई रखने में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है । मूर्तिपूजा ने भारतीय संस्कृति, सभ्यता, इतिहास तथा मानव के आदर्शों को चित्रित करके अक्ष ण्ण रखा हैं। मतिपजा ने तीर्थंकर भगवन्तों श्रमणों आदि के जीवन सम्बन्धी अनेक घटनाओं का, भक्ति और उनके संरक्षण का समावेश है । स्नात्र, अष्टप्रकारी, पंचोपचारी, सत्तरहभेदी, पंचकल्याणक, निनानवे प्रकारी, सर्वोपचारी अलंकार आँगी आदि पूजाएं भी आगमविहित होने के कारण निर्दोष भक्ति का कारण हैं । इन में आडम्बर, हिंसा, परिग्रह आदि की गंधतक नहीं है। परन्तु ऐसी पूजाओं से तीर्थंकर भगवन्तो के गर्भावस्था से ले कर निर्वाण • तक के संपूर्ण जीवन वृतांतों की झांकी के संक्षिप्त दर्शन तथा ज्ञान होता है । और उनको उत्कृष्ट राज्य लक्ष्मी, कुटुम्ब कबीला ऋद्धि आदि प्राप्त होने पर भी उसे असार समझकर तृणवत्त त्याग के आदर्श और संसार की चल लक्ष्मी की असारता की भावना होती हैं । संसार से विरक्ति प्राप्त करके सर्व संगत्याग करके भव्य प्राणि अणगारी बन कर श्रमण रूप में मोक्षगोमी बन जाता है। मूर्ति आलंबन रूप है उस के द्वारा उपास्य के साक्षात दर्शनों की अनुभूति होती हैं, उनके गुणों का स्मरण हो जाता है। इसके द्वारा उपासक एकाग्रता प्राप्त कर उपास्य को पा सकता है। यह ईश्वरोपासना का निमित्त मात्र है । साक्षात ईश्वर नहीं । मूर्ति को सर्व "शक्तिमान ईश्वर मानकर अपने भाग्य को उसी के भरोसे छोड़कर जब मानव अकर्मन्य बनने लगा तब ऐसी गलतधारणा के कारण उत्कर्ष के बदले दूसरी तरफ अपकर्ष भी अवश्य हुआ है। इस में संदेह नहीं। इस से स्पष्ट है कि मूर्ति के विषय "में मानव की गलत धारणा के कारण ही अपकर्ष हुआ है न कि मूर्ति से। मति पूजा ने तो धर्म को स्थाई रखने में, एक-धर्मानुयायियों के संगठन में अलौकिक योगदान दिया है। जहां धर्मोपदेशक संत पहुंचने में भी अपने आप को असमर्थ पाते हैं, ऐसे उच्च पर्वतशिखरों पर, समुद्रपार बहुत दूर देशों तक, कंदराओं खाइयों में, तथा पढ़ों-अनपढ़ों को वहां के जिनमंदिर और जिनप्रतिमाओं की उपासना ने ही धर्म में चुस्त तथा दृढ़ रखने में अलौकिक योगदान दिया है। यदि ये न होते तो सब क्षेत्र जंगली जातियों के समान ही पिछड़ जाते । जहाँ यातायात के साधन नहीं हैं धर्मगुरुओं तथा धर्मग्रंथों का भी अभाव हैं वहाँ के लोगों में भी धर्मसंस्कारों को • अक्ष ण्णरूप से स्थाइ रखने में मूर्ति पूजा को ही गोरव प्राप्त हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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