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अकलंकदेव कृत राजवार्तिक टीका (तत्त्वार्थ पर) में लिखा हैं कि
"चैत्यप्रदेश गंधमाल्य-धूपादि मोषण, लक्षण स एव सर्वोऽशुभस्य माम्नः ।।
अर्थात्-श्री जिनमंदिर के सुगंध, पुष्पमाला, धूपादि चुराने वाला अशुभ नाम कर्म का बंध करता है। (इस से स्पष्ट है कि फूल, फूलमाला, केसर, चंदन कर्पूर आदि सुगंध द्रव्य तीर्थंकर की अंग पूजा के लिए, धूपादि सामग्री अग्र पूजा के लिए काम में लेने का दिगम्बर मान्य आगमों में भी विधान है । यही कारण है कि ऐसी सामग्री वहां विद्यमान होती थी)।
(33) अपज्य प्रतिमा के दर्शन से ज्ञानहीनतावसुनन्दी जिनसंहिता में लिखा हैं कि--
जिन प्रतिमा का कुकुमादि (केसर-चंदन-कपूर आदि) के विलेपन किये बिना अनचित चरण युगलों के जो व्यक्ति दर्शन करता है बह ज्ञानहीन है। यानि जो व्यक्ति जिनप्रतिमा के चरणों पर केसरादि सुगंधित द्रव्यों के बिलेपन से पूजा नही करता वह अज्ञानी जिनाज्ञा का पालन नहीं करता।
(34) यह धावक धर्म चार प्रकार का
दान, पूजा, शील और उपवास वह संसार रूपी वन को भस्म करने वाला चार प्रकार का श्रावक धर्म जिनेन्द्र देव ने कहा है।
दाणं पूया सील उववासं बहुविहंपि खवणं पि ।
सम्म जुदं मोक्ख-सुहं सम्म-विणा दीह-संसार ॥9॥ (रयणसारे)
अर्थ-सम्यक्त्व से युक्त मनुष्यों के लिए 1-दान, 2-पूजा, 3-शील, 4-. उपवास तथा अनेक प्रकार के व्रत तप कर्म क्षय के कारण तथा मोक्ष सुख के हेतु हैं । सम्यग्दर्शन (विवेक की जाग्रति) के विना ये ही दीर्घ संसार के कारण होते हैं।
(35) जिन पूजा आदि से उपलब्धिजिनस्तवनं जिन-स्नानं जिनपूजा जिनोत्सवं
कुर्वाणी भक्तितो लक्ष्मी लभते, याचिता जन ॥12-400
जिनस्तुति, जिनस्नान, जिनपूजा और जिनोत्सव को भक्ति पूर्वक करने : वाला मनुष्य वाँछित लक्ष्मी की प्राप्ति करता है।
(36) जिन प्रतिमा के दर्शन से सम्यग्दर्शन की प्राप्तितिरश्चों केषाञ्चिज्जातिस्मरण केषांचिद्धर्मश्रवणं केषांचिज्जिनबिम्बदर्शनम् । मनुष्याणामपि तथैव ।।
तियंचों में किन्हीं को जातिस्मरण से, किन्हीं को धर्म श्रवण से और किन्हीं: को जिनप्रतिमा के दर्शन से सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। मनुष्यों को भी इसी प्रकार जाननी चाहिये।
(37) जिनप्रतिभा का दर्शन सम्यक्त्व की प्राप्ति का कारण कैसे ?
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