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________________ बन्ध जैसे कैदी रस्सी से ऊपर-नीचे-बीच में बांधा जाता है वैसे संसारी जीव सम्पूर्णतया चारों तरफ से कर्म से बांधे जाते हैं। इसलिए इसको काया की कैद में (जेल में) बन्द होना पडता है, चार गति में भ्रमण करना पडता है | अच्छे भाव से पुण्य-कर्म का बन्ध होता है, (सोने की बेडी), और खराब भाव से पापकर्म का बन्ध होता है (लोहे की बेडी) |दोनों आत्मा को संसार की कैद में बांधकर रखते हैं। लोहे के गोले को तपाने पर अग्नि एकरुप हो जाती है, दुध में पानी डालने पर दोनों एकरुप हो जाते है, वैसे आत्मा में कर्म एकरुप हो जाते है। कर्म के एकरुप होने के साथ ही कर्म का स्वभाव (प्रकृति-जीव पर होनेवाला प्रभाव) काल (स्थिति-कितना समय रहेगा?) तीव्र-मन्द रस (उसका प्रभाव कितना होगा?) और प्रमाण (Quantity-जत्था प्रदेश) निश्चित हो जाता है । इसको कर्म का प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध और प्रदेशबंध कहा जाता है। - सोंठ वगैरह का (सोंठ, गुड, घी आदि मिलाकर) लड्डु बनाया हो तो उसकी प्रकृति (स्वभाव) जैसे कि, वायु (गेस) दूर करने की, उसकी स्थिति-अमुक दिन तक रहेगा फिर बिगड जाएगा, इसका रस तीखा-मीठा और उसमें ५०-१०० ग्राम जितना प्रमाण-जत्था होता है । इस प्रकार कर्मबन्ध के समय कैसे भावसे कर्म बांधा गया है तदनुसार बँधे कर्म के विभाग होकर किसी की प्रकृति ज्ञान को रोकने की, किसी की साता-असाता (सुख-दुःख) देने की, तो किसी की (राग-द्वेष-मिथ्यात्व आदि) मोह कराने की आदि प्रकृति निश्चित होगी है तथा इसमें (अमुक-अमुक) कर्म-अणु को टिकने की अमुक काल-स्थिति, तीव्र या मन्द रस और प्रत्येक विभाग में कर्म-पुद्गल का अमुक-अमुक समूह निश्चित होता है | काल पकने पर (योग्य समय आने पर) कर्म वैसा-वैसा फल दिखाता है। कर्म के अच्छे-बुरे फल भुगतते जीव मनोविकारों के आधीन हो जाता है और इन्द्रियों, कषायों, आरम्भ, परिग्रह वगैरह द्वारा नये-नये कर्म बांधता है | पूर्व कर्म भी इसी तरह बाँधे । यह झमेलाविषचक्र अनादिकाल से चलता आया है। इसलिए संसार अनादिकाल से चलता है। अच्छी भावना में और धर्म साधना में रहे तो कई पाप-कर्म का बन्ध अटकता है और बांधे हुए कितने ही पापकर्म पुण्य में बदल जाते हैं । कुछ पापकर्म का रस कम होता है और पुण्यकर्म का रस बढ जाता है तो कुछ पापकर्म सर्वथा नष्ट हो जाते है । सब कर्मों का सर्वथा नाश हो तब संसार की, जन्ममरण की अविरत परंपरा का अन्त हो जाता है यानी जीव मुक्ति में गमन करता है। ४५
SR No.003234
Book TitleTattvagyana Balpothi Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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