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________________ इस जगत में जीव की इच्छानुसार क्यों नहीं होता ? प्रयत्न करने पर भी मनपसन्द सफलता क्यों नहीं मिलती ? अचानक आफत क्यों आती है ? दो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को एक जैसे संयोग होने पर भी एक को लाभ और दूसरे को हानि क्यों होती हैं ? एक को सुख और दुसरो को दुःख क्यों मिलता है ? कहें, यह सब पाप-पुण्य का खेल है। कर्म (भाग्य) दो तरह के एक अच्छा (शुभ-सुख देनेवाला) और दूसरा बूरा (अशुभ- दुःख देनेवाला) अच्छा कर्म-पुण्य, बुरा कर्म-पाप पुण्य जीव को सुख प्रदान करता है । मनपसन्द/इच्छित प्रदान करता है, सद्बुद्धि देता है। पाप दुःख देता है, अप्रिय देता है, दुर्बुद्धि देता है । ऊपर के पहले चित्र में सेठाई, मेवा-मिठाई, बहुत अच्छा व्यापार, बँगला, मोटर, हृष्ट-पुष्ट शक्तिशाली शरीर और देव-विमान दिखाई देते हैं। ये सब पुण्य हो तो मिलते है । दूसरे चित्र में - बैल को भारी बोझ और चाबुक, मजदुरी, दुर्बलता, भंगीपना (कूडा उठाना पडे), बलवान की लात खानी पडे, प्रयत्न करने पर भी विद्यालाभ न हो, जेल और नरक ये सब दिखाई देते हैं । ये पूर्व में किये हुए पाप का फल है । ऐसे कर्म के कुल १५८ भेद हैं। उसमें... शातावेदनीय नामके पुण्य से अच्छा आरोग्य मिलता है। उच्चगोत्र-पुण्य से अच्छे ऊँचे कुल में जन्म मिलता है । देवायुष्य और मनुष्यायुष्य-पुन्य से देव-मनुष्य होते हैं। शुभ नामकर्म से अच्छी गति, अच्छा रुप, अच्छा गठन, यश-कीर्ति, सौभाग्य ( लोकप्रियता, लोकमान्यता) वगैरह मिलते है । अशाता वेदनीय पापकर्म से दुःख, वेदना, रोग आते हैं। नीचगोत्र से चमार-भंगी के कुल में जन्म होता है । अशुभ नाम-कर्म से एकेन्द्रियपना, कीड़े-मकोडे बनना, अपयश, अपमान वगैरह मिलते हैं । ज्ञानावरण पाप से विद्या नहीं आती, याददास्त नहीं मिलती है। मोहनीय पाप से दुर्बुद्धि, क्रोध, अभिमान, लोभ जैसे विकार होते हैं। अन्तराय पाप से इच्छित नहीं मिलता और न उन्हें भोग ही सकते हैं, दुर्बलता इत्यादि रहती है। पुण्यकर्म बांधने के उपाय : साधु-साधर्मिक आदि सुपात्र को दान, गुणवान की अनुमोदना, परमात्मा आदि की स्तुति-भक्ति, नमस्कार, दया, नियम, तपस्या, क्षमाभाव रखना, सत्य बोलना, नीति का पालन करना, अच्छे विचार और अच्छे आचार में आगे बढना इत्यादि । पापकर्म बांधने के कारण : देव, गुरु और धर्म की निन्दा - आशातना करनी, धर्म में अन्तराय (रुकावट डालना), हिंसा, असत्यझूठ, अनीति, दुराचार भ्रष्टाचार, इन्द्रियों के विषयों में लम्पटता (अच्छा देखकर तुरन्त प्राप्त करने की उत्कण्ठा) शिकार, जुआँ, कन्दमूल, होटल आदि अभक्ष्य भक्षण, रात्रि भोजन इत्यादि । ३७ पुण्य और पाप
SR No.003234
Book TitleTattvagyana Balpothi Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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