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अजीव और षड़ द्रव्य
जिसमें ज्ञान नहीं है, चैतन्य नहीं है, जो सहज ढंग से अपने आप कोई कार्य करने के लिये समर्थ नहीं है वह अजीव कहलाते हैं-जड कहलाते हैं । उदाहरण के तौर पर थम्मा, लकडी आदि...। ऐसे अजीव विश्व में पाँच हैं।
(१) पुद्गल (२) आकाश (३) काल (४) धर्मास्तिकाय और(५) अधर्मास्तिकाय। | (9) जिसमें रुप, रस, गन्ध, स्पर्श हो यानी सामान्यतया जो दिखाई दे सकते हैं, छू सकते हैं, चख या सूंघ सकते हैं
वे सभी । जिनका संयोग-विभाग (मिलना-छूटना), बढना-घटना होता है अर्थात् पूरन (बढना) गलन (घटनासडना-नाश-नष्ट होना) हो सकता है वह पुद्गल कहलाते हैं। उदाहरण के तौर पर लकडी, मिट्टी, मकान, पत्थर, अस्त्र, शस्त्र, मुर्दा वगैरह । आवाज (शब्द), अन्धकार, छाया (परछाई) ये सभी पुद्गल हैं । मन और कर्म भी पुद्गल हैं। दूसरी वस्तु को रहने के लिए जो स्थान (जगह) देता है वह आकाश कहलाता है | दूसरे द्रव्यों सहित का आकाश वह लोकाकाश । और लोक से बाहर का आकाश वह अलोकाकाश | तीसरे चित्र में बताये अनुसार दो पाँव चौडे कर के कमर पर हाथ देकर खडे हुए मनुष्य जैसी जगह वह लोकाकाश, बाहर का अलोकाकाश। क्षण, मिनिट, घण्टा, दिन-रात, मास, वर्ष-ये भी सभी काल कहलाते हैं । उसके मुख्य आधार ऐसे सूर्य के चित्र से
काल बताया है। (४) जीव और पुद्गल गमनागमन (जाना और आना) करते हैं, तो वह अनन्त आकाश में कही के कहीं क्यो नहीं
जाते ? तितर-बितर (छिन्न-भिन्न) क्यों नहीं होते ? निश्चित (अमुक) ही भाग में क्यों व्यवस्थित रहते हैं ? क्योंकि इतने ही भाग में उनको गति करने के लिए आवश्यक सहायक वस्तु है - उसका नाम धर्मास्तिकाय द्रव्य है । जैसे
पानी मछली के चलने में सहायक है वैसे जीव और पुद्गल को गति में सहायक धर्मास्तिकाय है। (५) अशक्त वृद्ध मनुष्य को खडे रहने में लकडी जैसे सहायक बनती है वैसे जीव और पुद्गल को स्थिरता में सहायक
वस्तु-अधर्मास्तिकाय है। ये पाँचों अजीव द्रव्य है । उसमें पुद्गल देख सके वैसा मूर्त है । बाकी के चार अमूर्त है । इसमें जीव द्रव्य को जोडने से कुल षड् (छह) द्रव्य माने जाते है।
आज की बिजली-शक्ति, भाप-शक्ति, अणु-शक्ति (एटम-बंब) एरोप्लेन, रेडियो, टी.वी., फोन, इन्टरनेट, उपग्रह, विविध यंत्र-शक्ति, ये सभी पुद्गल द्रव्य और पुद्गल शक्ति है।
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