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________________ जीव का स्वरुप (असली और नकली)) ताँबे में मिला हुआ सोना हलका दिखाई देता है, फिर भी सोना स्वयं अन्दर शुद्ध है । उसी प्रकार जीव स्वयं अन्दर में शुद्ध होने पर भी जड कर्म-रज (कर्म का कूडा) उसमें मिल जाने से मलिन बना हुआ है। उसके असली स्वरुप में अनन्तज्ञान आदि गुण हैं, शक्तियाँ हैं । परन्तु वे कर्म के आवरण से ढंक जाने पर उसका रुप मलिन हुआ है । इसलिए आत्मा का नकली स्वरुप प्रकट हुआ है । जीव को सूर्य-जैसा समझे तो इसमें आठ प्रकार के गुणरुप प्रकाश कहलाते है । सूर्य पर आठ प्रकार के बादल आ जाएँ वैसे जीव पर आठ प्रकार के कर्मरुपी बादल आ जाने से उसका प्रकाश ढंक गया है और उसके साथ जीव पर नकली परतें खडी हो गई है। उदाहरण के तौर पर ज्ञानावरण कर्म से जीव में रहा हुआ अनन्तज्ञान (सर्वज्ञपना) ढंक जाने से अज्ञानपना, मुर्खपना,मंदबुद्धिपना, विस्मरणशील स्वभाव आदि खडे हए। सामने के चित्र में जीव का (अर्थात् अपना) आंतरिक स्वरुप कैसा भव्य है वह बताया है । परन्तु आज कर्मरुपी बादलों से घिरे हुए कैसे मिश्रित स्वरुपवाले बन गये हैं। उसकी नीचे के कोष्टक में स्पष्टता है। जीव का स्वरुप उसको ढंकनेवाले जीवका नकली स्वरुप कर्मरुपी बादल (१) अनन्त ज्ञान (१) ज्ञानावरणीय कर्म | (१) अज्ञान, मन्द, मूर्ख, जड, विस्मरणशील... (२) अनन्त दर्शन (२) दर्शनावरणीय कर्म (२) आँख वगैरह नहीं होना । अर्थात् अन्धे, बहरे, लूले-लंगडे तथा नींद के प्रकार । (३) सम्यग्दर्शन (३) मोहनीय कर्म (३) मिथ्यात्व, अविरति, राग, द्वेष, काम, क्रोध... (४) अनन्तवीर्यादि (४) अन्तरायकर्म (४) दुर्बलता, कृपणता, दरिद्रता, पराधीनता.... (५) अनन्तसुख (५) वेदनीय कर्म (५) साता(सुख) असाता (कष्ट, पीडा, दुःख) । (६) अजर-अमरता | (६) आयुष्यकर्म (६) जन्म, जीवन, मरण । (७) अरुपीपना (७) नामकर्म (७) नरकादि गति, एकेन्द्रियादि शरीर, रुप, यश, अपयश, सौभाग्य, दुर्भाग्यादि... (८) अगुरु-लघुपना । (८) गोत्रकर्म (८) उच्चकुल, नीचकुल । २७ ainelibory.org
SR No.003234
Book TitleTattvagyana Balpothi Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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