________________
शरीर और जीव
हम कौन हैं ? हम जैन हैं । 'जैन यानी' ? जिनेश्वर भगवान को मानते हैं वह जैन । उनका कहा हुआ सब (मनपसन्द थोडा नहीं, सब कुछ) मानते हैं वह जैन । हम जैन हैं, तब 'हम' अर्थात् ओह ! 'हम' शरीर नहीं तो जड है । हम अर्थात् जीव-आत्मा-चेतन । शरीर को ज्ञान नहीं होता है, जीव को ज्ञान हो सकता है।
हमें सुख-दुःख होता है, ज्ञान होता है, समझ पडती हैं, हमें गुस्सा आता है, अभिमान होता है, क्षमा-नम्रता रखते हैं, हमें इच्छा होती है, विचार आते हैं, - ये सब किसको होते हैं ? आत्मा को, शरीर को नहीं। अगर शरीर को यह सब होते हो तो मुर्दे को भी होना चाहिए लेकिन वह कोइ संवेदना नहीं होती है। क्योंकि वह शरीर है, आत्मा नहीं ।
इसमें से कितने ही गत जन्मों के कर्म और संस्कार के कारण होते है । इसलिए समान परिस्थितियों में भी हरएक जीव के सुख-दुःख, क्रोध, क्षमा वगैरह में भेद पडता है - अलग-अलग प्रकार के होते है । शरीर तो पुद्गल-मिट्टी का बना हुआ है । उसको इसमें से कुछ नहीं होता है। उसको कोइ सुख नहीं, दुःख नहीं, ज्ञान- इच्छा-भावना आदि कुछ नहीं होता है । मुर्दे को क्या इसमें से कुछ भी होता है ? इसलिए शरीर स्वयं जीव नहीं होता है। हमें सुख-दुःख आदि होते हैं इसलिए हम जीव हैं, शरीर में कैद हुई आत्मा हैं (पिंजर में कैद हुए पक्षी की तरह) ।
जीव को आँख से देखना होता है तो देखता है, आँख अपने आप नहीं देखती। जीव स्वयं विचारे तो हाथ, पाँव हिलाता है या शरीर को गतिमान करता है, अन्यथा यह बिचारा पडा रहता है। इसलिए जीव शरीर से स्वतन्त्र व्यक्ति है, स्वतन्त्र है ।
शरीर तो हर भव में नया बना है। जीव को कर्मसत्ता ने भूत की तरह चिपकाया है परन्तु जीव तो अनन्तकाल से इस संसार में भटकता आया है। इसलिए किसी को पूर्वजन्म याद आता है । अपना जीव पेड-पौधे, पानी, वायु, कीडे - मकौडे, पशु-पक्षी इत्यादि अवतारों में अनन्त बार जाकर के आया है, अर्थात् वैसा बना है ।
यहाँ हमें मनुष्य शरीर मिला है, यह भी सभी मनुष्यों की तरह छूट जानेवाला है (अर्थात् हम भी मर जानेवाले हैं) और फिर जीव को परभव में कहीं जाना पडता है । इसलिए इस शरीर का, इन्द्रियों का मोह नहीं रखना चाहिए। उसकी टापटीप सजावट मजे से नहीं करनी चाहिए। इसके खातिर पाप नहीं करना चाहिए। पाप करने से जीव को दुर्गति में जाना पडता है। पाप का फल-दुःख अवश्य भोगना पडता है ।
२१
www.jainell