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जिनमन्दिर (दहेरासर) विधि
अपने वीतराग भगवन्त की दिव्य और भव्य प्रतिमाएँ जहां हो, वह जिनमन्दिर कहलाता है । प्रभुकी प्रतिमा प्रभु के स्वरुप की याद दिलाती है | हरेक जैन को हररोज जिनमन्दिरजाना चाहिये। जिनमन्दिर में जाने की चाह होते ही एक उपवास जितना लाभ मिलता है । इसलिए खूब भावोल्लास के साथ मन्दिर जाना | चलते हुए कीडी वगैरह जीव नहीं मरे इसके लिए नीचे देखकर चलना । जिनालय के शिरवर के दर्शन होते ही दो हाथ जोडकर थोडा सिर झुकाकर नमो जिणाणं' कहना । इसी प्रकार कभी भी मन्दिर के पास से निकलें तब इस प्रकार 'नमो जिणाणं' बोलना।
जिनमन्दिर में प्रवेश करते संसार के कार्य एवं उसकी विचारणा बन्द करने कि लिए 'निसीहि' कहना । फिर प्रभु के चारों और प्रभु की दाहिनी ओर से तीन प्रदक्षिणा (प्रभुजी को बीच में रखकर गोलाकार में स्तुति बोलते फिरना वह) देना, इससे संसार का भ्रमण मिटता है।
फिर प्रभुजी के सामने आधे झुककर 'नमो जिणाणं' कहते भगवान का मुँह देखते-देखते प्रणाम करना | फिर गद्गद (प्रभुभक्ति से भरपूर आर्द्र) स्वर से अच्छी प्रभु-स्तुति बोलना और भावना करना कि 'ओह ! कल्पवृक्ष को भी मात कर दे ऐसा संसार के दुःखों का नाश करनेवाला कैसा सुन्दर प्रभुदर्शन-वंदन करने का सद्भाग्य मुझे मिला है।' फिर वासक्षेप-धूप-दीप-साथिया करके चैत्यवंदन करना।
स्नान करके पूजा के कपडे पहनकर गये हो तब स्तुति करने के बाद खेस के अंचल से मुखकोश बाँध करके केसर घिस लेना। तिलक (भाइयों को बदाम के आकार का टीका तथा बहनों को गोल टीका) करके (प्रभुपूजा के अलावा के कार्यों का त्याग करने के रुप में) दूसरी 'निसीहि' कहकर गर्भागार में प्रवेश करना। ___ प्रभु की प्रतिमा पर मोर के पंखो-पींछियों से बना हुआ कोमल ब्रश फेरना, जिससे जीव-जन्तु दूर हो जाएँ। फिर बडा कपडा (केसरपोथो-केसर पोंने का कपडा) पानी में भिगोकर प्रतिमा के उपर से बासी केसर उतार लेना । कोने में से केसर नहीं निकले तो धीरे से वालाकूँची से साफ करना । फिर कलश को दोनों हाथों से पकडकर प्रक्षाल (अभिषेक) करना । फिर (मुलायम वस्त्रों के बने हुए) तीन अंग पोंछने के कपड़ों से प्रभु-प्रतिमा को स्वच्छ-सूखी (कोरी) करना। ___फिर प्रभुजी को चंदन-बरास विलेपन करना । केसर-चंदन से नौ (नव) अंग पर तिलक करना । वरक हो तो चिपकाना । बादलारेशम-पुष्प-सोना-चांदी-हीरें आदि के अलंकार आदि से अंगरचना (प्रतिमाजी की शोभा) की जा सकती है । पुष्प चढाना | फिर गर्भागार के बाहर आकर, प्रभुजी के सामने रहकर, उनका जन्माभिषेक उत्सव, राज्यादि में भी वैराग्यमय अवस्था, दीक्षाजीवन, तपस्या, तीर्थंकर अवस्था वगैरह भाना । धूप-दीपक करना । चामर (चँवर), पंखा, दर्पण आदि धरना।
फिर चावल (अक्षत) से स्वस्तिक करके, फल नैवेद्य आदि अर्पण करके भावपूजा से भिन्न कार्यों के त्यागरुप तीसरी 'निसीहि' कहकर चैत्यवंदन करना | घण्टनाद करना ।
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