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अपने गुरू और परमेष्ठी
नमो अरिहंताणी नमो उवज्झायाणं सन्चपावप्पणासणी नमो सिद्धाणं नमो लोए सव्वसाहूणं मंगलाणं च सव्वेसिं नमो आयरियाणी एसो पंचनमुक्कारी पदमी हवइ मंगल
अपने गुरु कौन?
साधु-मुनिराज ये ही सच्चे गुरू हैं, क्योंकि उन्होंने कंचन-कामिनी-माल-मिल्कियत, सगे सम्बन्धी, हिंसामय घरबार आदि संसार-मोह छोडकर दीक्षा ली है | स्थूल या सूक्ष्म (बडे या छोटे) कोई भी जीव को मारना नहीं,थोडा भी असत्य-झूठ बोलना नहीं, मालिक के दिए बिना कुछ भी नहीं लेना, स्त्री का सदा त्याग (ब्रह्मचर्य का पालन करना), फूटी कौडी भी रखनी नहीं (पैसे आदि मालमिल्कियत का सर्वथा त्याग)। एसे पांच महाव्रतों की प्रतिज्ञा लेकर जो जीवनभर ये पांच शील पालते हैं।
वे कच्चा पानी, अग्नि, हरी वनस्पति, स्त्री, बालिका वगैरह को छूते भी नहीं है | मठ-मकान-झोपडी भी नहीं रखते । भोजन खुद नहीं पकाते, अपने लिए दूसरों के पास से भी नहीं कराते, अपने लिए तैयार किया गया भोजन नहीं लेते । वे गृहस्थों के घर-घर से थोडा थोडा पकाया हुआ अन्न माँगकर भिक्षावृत्ति से अपना निर्वाह चलाते हैं (जीवन निर्वाह करते हैं ।) रात को पानी भी नहीं लेते।
वे नंगे पांव चलकर विहार करते करते गाँव गाँव में जाते हैं । दिन-रात धर्म-क्रिया करना, शास्त्र पढना, साथ में रहे हुए ग्लान, तपस्वी या वृद्ध साधुओं की सेवा करनी, तपश्चर्या करनी ये उनका निरंतर धर्मसाधना की सौरभ से सभर साधुजीवन !(देखिए चित्र-१) ___ वे लोगों को सिर्फ धर्म सिखलाते-समझाते हैं | तीर्थंकर भगवान के कहे हुए तत्त्व-दया, दान, व्रत, नियम, त्याग, तपस्या, देव-गुरू की भक्ति वगैरह का उपदेश देते हैं।
ये गुरू तीन प्रकार के हैं - सबसे बडे आचार्य ये शासन की सेवा-रक्षा करते हैं । तीर्थंकर प्रभु की अनुपस्थिति में वे शासन के राजा गिने जाते
दूसरे उपाध्याय - ये साधुओं को शास्त्र पढाते हैं और तीसरे साधु-जो कि आचार्य-उपाध्याय भगवंतो ने सिखाई हुई संयमजीवन-मोक्षमार्ग की साधना करते हैं । ये तीनों ही गुरूदेव कर्मों का क्षय (नाश) करके मोक्ष प्राप्त करते हैं, तब सिद्ध भगवान बनते हैं।
(१) अरिहंत (२) सिद्ध (३) आचार्य (४) उपाध्याय और (५) साधु । ये पाँच परमेष्ठी कहलाते हैं (उनको परमेष्ठी कहकर भी बुलाया जाता है) । उनको नमस्कार करने का सूत्र नवकार मंत्र-नमस्कार महामंत्र है । यदि एकबार नवकार ध्यान से (शुभ भाव से, एकाग्रता से) गिना जाये तो पाप कर्म-जो बहुत ही बडे समूह में पडे हुए हैं (७० करोड,x१ करोड सागरोपम की उत्कृष्ट स्थितिवाले से लेकर के थोडे समय के) वह भी वापिस अनन्त, उसमें से ५०० सागरोपम वर्ष जितने कर्म टूट जाते हैं, (१ सागरोपम अर्थात् असंख्य वर्ष) एक छूटी नवकारवाली अर्थात् १२ नवकार गिनते छह हजार सागरोपम टूटते हैं और एक बँधी (पक्की) नवकारवाली अर्थात् १०८ नवकार गिनने से ५४ हजार सागरोपम जितने कर्म टूटते हैं।
नवकार ध्यान से गिनने के लिए उपर के पद पढकर गिनना चाहिए।
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