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________________ अपने भगवान अपने भगवान कौन ? अरिहंत भगवान | ये तीर्थंकर कहलाते है । ये जिनेश्वर भी कहलाते है । अरिहंत यानी देव आदि के भी पूज्य-पूजन करने योग्य। तीर्थकर यानी विश्व के समस्त जीवों को तारनेवाले धर्मतीर्थ के स्थापक । जिनेश्वर यानी राग-द्वेष इत्यादि आत्मिक दोषों को जीतनेवालों में अग्रेसर | ये परमात्मा है, परम (श्रेष्ठ) पुरूष हैं,पाताललोक-मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक इन तीनों लोक के नाथ हैं,सुरासुरेन्द्रों से पूजित है। श्री आदीश्वर, श्री शांतिनाथ, श्री नेमिनाथ, श्री पार्श्वनाथ, श्री महावीरस्वामी एसे कुल चौबीस तीर्थंकर हो गए हैं । इन चौबीस तीर्थंकरो को चौबीसी कहा जाता है। श्री आदीश्वर आदि के पहले अनन्त चौबीसी हो गई है और भविष्य में भी अनन्त चौबीस होंगे। __अपने भरतक्षेत्र के उत्तर में महाविदेह क्षेत्र है, ऐसे कुल ५ महाविदेह हैं । वहाँ श्री सीमंधरस्वामी वगैरह २० विहरमान (अभी विचरते) तीर्थंकर देव विद्यमान है । (देखिए सामने चित्र में) चांदी, सोना और रत्नों से बने हुए तीन गढवाले समवसरण में बिराजकर ये धर्म का उपदेश देते है । वहाँ गौतमस्वामी जैसे गणधर और दूसरे मुनिराजों तथा ईन्द्रों, देवों राजाओं तथा अन्य लोग भी आए हुए हैं । वहां नगर और जंगल के पशु भी जाति-बैर भूलकर आए दिखाई देते हैं । सभी प्रभु की वाणी को अपनी अपनी भाषामें सुनते हैं, इसीलिए प्रत्येक उसको समझ शकते हैं। अरिहंत भगवान को राग नहीं, द्वेष नहीं, हँसी नहीं, शोक नहीं, हर्ष या उद्वेग (दुःख) कुछ नहीं है । ये वितराग हैं। उन्होंने दीक्षा लेकर, तपस्या कर के, कष्ट सहे | कष्टों से तनिक भी चलित न होते ध्यान मग्न रहकर कर्मों का नाश करके केवलज्ञान (परिपूर्ण ज्ञान) प्राप्त किया । इस प्रकार वे सर्वज्ञ हुए । भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल तीनों कालों को ये सभी जानते हैं । उन्होंने जगत को सत्य तत्त्व की जानकारी दी है, मोक्ष का मार्ग यानी धर्म उन्होंने समझाया है । आत्मा के सच्चे सुख की समझ उन्होंने दी है। (देखिए-सामने ये भगवान का मंदिर है। इसमें उनकी मूर्ति-प्रतिमा है) उनकी पूजा-भक्ति करने से बहुत पुण्य होता है, पाप धुलते हैं | अच्छी गति मिलती है । उनका नाम जपने से भी पुण्य बढता है। जैनशासन में परमात्मा होने का, बनने का किसी को खास ठेका नहिं दिया । जो कोई भी अरिहंत की, सिद्ध की, जैनशासन की, आचार्यादि साधुओं की अच्छी तरह से आराधना करते हैं, खूब भक्ति करते हैं अथवा सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की प्रशंसनीय साधना करते हैं, या तो तीर्थ-संघ की असाधारण सेवा-भक्ति करते हैं, सर्व जीवों को तारने की करूणा बुद्धि से उत्तम (शुभ) प्रयत्न करते हैं, विधिपूर्वक लाख नवकारमंत्र गिनते हैं, देवद्रव्य की रक्षा-वृद्धि, शासन प्रभावना करते है, इत्यादि जिनेश्वर देवों के फरमाये शुभ कर्तव्यों से वह उत्तम आत्मा भी तीर्थंकर हो सकते हैं। मार्ग यानी पाल और भविष्यका कर्मों का नाश Winelon
SR No.003234
Book TitleTattvagyana Balpothi Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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