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आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवर मुत्तमं दिंतु ॥ ६ ॥ चंदेसु निम्मल-यरा, आइच्चेसु अहियं पयास-यरा, सागरवर गंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥७ ॥
शब्दार्थ
लोगस्स
उज्जो अगरे
धम्मतित्थयरे
जिणे
अरिहंते
कित्तइस्सं
चउवीसंपि
केवली
उसभ
मजिअं
वंदे
संभव
मभिणंदणं च
सुमई च
पउमप्पहं
सुपासं
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पंचास्तिकाय लोक का
प्रकाश करनेवाले
धर्मतीर्थ के स्थापक राग-द्वेषादि के विजेता
अरिहंतो का
कीर्तन करूंगा
चौवीस भी
केवलज्ञानी
ऋषभदेव को
अजितनाथ को
वंदना करता हूँ संभवनाथ को
और अभिनन्दन स्वामी को और सुमतिनाथ को पद्मप्रभ स्वामी को सुपार्श्वनाथ को
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