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________________ आपका है। समिति-गुप्ति का उपदेश भी आप ही के धर्म में है। प्रायश्चित का विशद वर्णन, कर्मसिद्धांत, कर्म की १५८ प्रकृति, उनकी स्थिति, उन के रस व प्रदेश, एवं बंध-उदय-उदीरणासंक्रमण-अपवर्तना-निकाचना-उपशमना, १४ गुणस्थानक, और अनेकांतवाद आदि पर आपने विस्तृत विचार बताए। ये सब जैनधर्म की ही विशेषताएँ हैं। ये विश्व को आप ही की विशिष्ट देन हैं। इस प्रकाश के बिना कल्याण कैसे हो? हे अरिहंतदेव ! अज्ञानान्धकार में भटकने वाले हम लोगों को आपने अपने जीवन का आलंबन देकर भी भव्य उपकार किया है। इससे हमें सभी साधना व आप की आराधना का बल मिला है। आपके आलंबन में मन पवित्र तथा उच्च साधना से परिपूर्ण रहता है। हे प्रभो ! आपने जीव-अजीव आदि तत्त्वों का, अनेकान्तवादादि सिद्धान्तों का, एवं सच्चे मोक्षमार्ग का सत्य प्रकाश प्रदान कर हम पर असीम उपकार किया है। आप यथार्थ धर्मचक्रवती हैं। आपकी सेवा के प्रभाव से हमें यह प्रकाश प्राप्त हो, मोक्ष-मार्ग की उच्चसाधना मिले, हमारी काम-क्रोधादि की वासनाएँ नष्ट हों, आहारादि पापसंज्ञाएँ दूर हों, रागद्वेष के बन्धन कटते जाएँ, किसी जड़पदार्थ पर.... यहाँ तक कि मेरी देह पर भी मुझे आसक्ति न रहे। हम मात्र अपनी आत्मा में ही लीन रहें, शुद्ध ज्ञान, दर्शन, व चारित्र में ही तन्मय हों, यही हमारी प्रार्थना है। चैत्यवंदन सकल कुशल वल्लि: पुष्करावर्तमेघो, दुरिततिमिरभानुः कल्पवृक्षोपमानः । ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003232
Book TitleAradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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