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________________ गद्य-प्रार्थना प्रतिदिन बोलकर प्रार्थना करो] हे अरिहंत ! हे भगवंत ! हे वीतराग ! हे अभयदाता ! हे आत्मोद्धारक ! हे कर्मविनाशक ! हे गीर्वाणगुरुगुरो! हे चारित्रमूर्ति ! हे छद्मस्थभावातीत ! हे जगद्गुरु जिनेश्वर ! हे त्रिभुवनपति तीर्थंकर ! हे दीनोद्धारक ! हे धर्मधुरंधर ! हे निरंजन निर्विकार नाथ ! हे परमपुरुष परमेश्वर ! हे निर्बलों के बल ! हे अनाथों के नाथ ! हे बांधवहीनों के बांधव ! हे भाग्यविधाता ! हे मंगलमूर्ति ! हे भव्यस्फूर्ति ! हे कल्याण-आकृति ! हे मोक्षदाता ! हे यतीन्द्र ! हे गणधरसेवित ! हे राजेश्वर-सुरेश्वरपूजित ! हे लोकालोक-प्रकाशक ! हे विश्वजीववत्सल ! हे शासननायक ! हे सत्त्वशिरोमणि ! हे हितहेतु ! हे क्षमामूर्ति ! हे ज्ञानानन्दपूर्ण !.... इत्यादि अनेकानेक सत्य विशेषणों से अलंकृत हे हमारे हृदय के स्वामिन् अरिहंत प्रभो ! इस संसार में केवल आप ही ऐसे है कि आपका ध्यान करनेवाले भव्य जीव आपके तुल्य हो जाते हैं। भ्रमरी के गुंजन से लट भ्रमरी बन जाती है। इसी प्रकार उपर्युक्त विशेषणों से आपका गुंजन करते करते, मैं भी ऐसे विशेषणों से युक्त बन जाऊँ, यही मेरी प्रार्थना है। हे अरिहंत परमात्मन् ! आप ही मेरे एक आधार है। आपकी कृपा और प्रभाव से ही संसारी जीवों का इस अनन्त दुःखमय संसार से छुटकारा होता है ओर उन्हें मोक्ष मिलता है। संसार के पदार्थ राग-द्वेषादि विकारों के कारण है। आप स्वयं वीतराग, निर्विकार हैं, अत: आपका ध्यान करते रहने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003232
Book TitleAradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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