SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिथ्या करने अथवा ललाट लिखित दुःखों में राहत पाने के लिए मैं अनुचित प्रयत्ल में या दोरे, धागे, मंत्र, ताबीज आदि के प्रलोभन में न पडूं तथा सतत आत्मसाधना करता हुआ दुःख-सुख में समताधारी रह सकूँ। अंग -७.कंठ हे भगवन् ! आपने कैवल्य प्राप्ति के बाद वर्षों तक पृथ्वी पर भ्रमण कर उपदेश का पुष्करावर्त मेघ बरसाया जिससे हम अतीव उपकृत हुए हैं। आपने हमारी अनेक शंकाओं का समाधान किया है। हमारे आत्मोद्धार के लिए आपने तत्त्वों की तथा मोक्षमार्ग की मंजुल, दिव्यवाणी का स्रोत प्रवाहित किया। आपके कंठ ने तो जादू या चमत्कार किया। आपकी वाणी का श्रवण कर अनेक जीव भवसागर पार कर गयें! हे भगवन् ! आपकी कंठपूजा के प्रभाव से (i) हममें ऐसी शक्ति प्रगट हो कि जिससे हमारी वाणी द्वारा स्वपरहित हो, तथा (ii) आपके मौन के समान मौन से हम आत्मनिष्ठ बन सकें। अंग - ८.हृदय हे भगवन् ! मैं जब आपके हृदय की कल्पना करता हूँ उस समय मेरा रोम-रोम हर्षित हो उठता है। आपका हृदय उपशमित, नि:स्पृह, कोमल और करुणामय था। आपके हृदय में हमेशा और निरन्तर प्राणीमात्र के प्रति प्रेम का सागर उमड़ता था। वह मैत्रीभाव से धड़कता रहता था। शरणागत को आप हृदय से लगाते थे। हे प्रभो ! आपकी हृदय-पूजा के प्रभाव से पुन: पुन: यही ११० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003232
Book TitleAradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy