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________________ इस जीवन की अनुकूलता के तौर पर जो सुविधा सामग्री और आपत्ति - निवारण आवश्यक है, सो छोटी वस्तु है; और भवांतर में सद्गति की परंपरा प्राप्त हो यह बड़ी वस्तु है । बडे कल्प वृक्ष और चिंतामणि रत्न या समृद्ध सम्राट् इस लोक की विपुल सुख-सुविधाएँ दे सकते हैं, किन्तु परलोक में सद्गति नहीं । लेकिन इहलोक या परलोक का यह जो मिलता है सो पुण्य के बीच में आने के कारण। छोटी वस्तु का पुण्य छोटा, बड़ी का बड़ा । अतः यदि बड़ा पुण्य अरिहंत प्रभु के प्रभाव से मिल सकता है तो क्या छोटा पुण्य नहीं मिले ? इसी तरह यहाँ की आपत्तियाँ छोटी वस्तु और पर लोक में दुर्गति बड़ी वस्तु है । छोटी आपत्तियों का पाप छोटा, और बड़ी का पाप बड़ा । छोटी को दूर करनेवाला फिर भी कोई मिल जाय, परन्तु बड़ी आपत्ति रूप अधम भव को रोकने वाला कौन मिले ? अतः यदि अरिहंत परमात्मा के प्रभाव से बड़ी आपत्ति का निवारण एवं पापक्षय हो सकता है तो क्या छोटी आपत्ति का निवारण और उसका पापक्षय नहीं हो सकता ? तो पूछेंगे यहाँ (इस लोक में) अरिहंत की उपासना क्यों फल नहीं देती ? प्र० तो हम यहाँ अरिहंत की उपासना तो करते हैं, फिर भी यहाँ की आपत्तियाँ दूर क्यों नहीं होती, सुविधा क्यों नहीं मिलती ? उ० तो क्या ऐसा कह सकते हो कि अरिहंत देव से दूर नहीं हो सकती परन्तु अन्य राग-द्वेषी देव से दूर होती है ? यदि ऐसा होता तो, तो इस दुनिया में ऐसे देव-देवियों को भजने वाले करोड़ों लोग हैं, वे सभी दुःख मुक्त हो गये होते । पर क्यों नहीं होते ? कदाचित किसी में ऐसा होता दिखाई दे कि अमुक देव की मन्नत मानी और उसके बाद आपत्ति दूर हुई । वहाँ भी सच बात यह है कि पुण्योदय के प्रभाव से पापों के दब जाने से दूर हुई होती है और उसमें देव को मात्र यश दे दिया जाता है । ( उसका श्रेय देव को मिल जाता है) अनिकाचित कर्म पर भारी असर फिर भी इसका यह अर्थ नहीं कि अरिहंत देव का भी प्रभाव यहाँ के संकट दूर करने का नहीं है । निकाचित पापकर्म के उदय से आपत्ति आयी हो तो उसे हटाने की ताकत किसी में नहीं । महात्मागण अरिहंत देव के परम उपासक थे, तो भी उनमें से कुछ को प्राणान्तक विपदा भोगनी पड़ी | निकाचित कर्म के दुःख तो सहने ही पड़ते हैं। फिर भी जिनभक्ति से अनिकाचित कर्मों के दुःख दूर हो सकते हैं और उसमें अरिहंत प्रभु का प्रभाव जबरदस्त काम करता है । Jain Education International ४९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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