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छट्ट (बेला) तो चालू ही ! साढ़े बरह वर्षों में कुल पारने के दिन केवल ३४९ (तीन सौ उनचास) मतलब कि पूरे एक वर्ष जितने दिन भी पारने नहीं हुए | काया को कैसा कसा ? कैसी तपस्या की ? ऐसे परीषहों तथा उपसर्गों को सहने में कितना काया-कष्ट सहा ? ध्यान रहे, यह तो ध्यान-कायोत्सर्ग के अतिरिक्त । कारण, वे समझते थे कि कर्म नाश करना हो तो यह सब तप जरुरी है।
। तप के बिना सिद्धि नहीं - | और, तन-मन-इंद्रियों-इच्छाओं को कसे बिना तप नहीं । जब ऐसा महसूस हो कि 'तन कसा जा रहा है, मन कसा जा रहा है, इंद्रियों को अंकुश लग रहा है, इच्छा पर रोक लगी है' तब समझना कि तप आया । किसी ने गाली दी, गुस्सा उठने लगा, लेकिन समझ कर मन को दबाया, गुस्से के बदले दया सोची, और सामनेवाले को उपकारी माना, इस तरह मन को दबाया सो तप हुआ । हँसने--खेलने का मन हुआ, लेकिन दबा दिया तो यह भी तप हुआ । भोजन के दो रसों का त्याग किया, खाने की चार वस्तुएँ न ली, - इस तरह इच्छा को कसा, दबाया, वह तप हुआ। ... देखना चाहिए कि अनादि की चाल में मौके -मौके पर कैसी कैसी सुख-शीलता का आचरण किया जाता है, फिर चाहे वह अच्छा भोजन मिलने पर सवाया खाने के रुप में हो, चाहे जागते ही मांगने के रुप में हो, इस तरह मिलनेवाले सभी रस और सभी बानगियाँ खाने के रुप में, चाहे न मिलनेवाले के लिए आक्रोश या क्लेशरुप हो, आरामतलबी हो या हरामीपन हो विचारों की उच्छृखलताऔर स्वेच्छाचार हो, या मन में इच्छानुसार मलिनता या निकम्मा कूड़ा करकट इकट्ठा करने के रुप में हो - ऐसा वाणी में और शरीर मैं भी ....यह समस्त सुखशीलतास्वेच्छाचार लक्ष में लेकर जहाँ जहाँ जान बूझकर-चाहकर (सकाम) कमी की जाय, वह तप हुआ समझिये ।
पाप नाश के उपाय :(१) तप करो :
आचार्य महाराज श्रीधर्मनंदन चंडसोम से कहते हैं - 'पूर्व के शुद्ध किये बिना के पापकर्म (१) यहाँ भोगे जाकर या (२) तप करने से ही खत्म होते हैं, उसके बिना नहीं, अतः हे महानुभाव ! तुम तप करो |
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