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________________ फिर जब हमें माल दूसरों को देना हो उस समय हम अनीति करें तो चले ? दूसरा कितना धर्म करो तो भी अनीति तो हृदय अत्यन्त कलुषित करती ही है, अधमाधम बनाती है । प्राप्त हुए शासनधन की प्राप्ति को सार्थक बनाना हो तो मार्गानुसारिता का यह प्रथम गुण 'न्यायसम्पन्नता' गुण जीवन में ओतप्रोत हो जाना चाहिए । बुद्धि न्याय के मार्ग पर ही चला करे, अन्याय का विचार तक नहीं; फिर आचरण कैसा ? (६) इसी तरह शासनधन और जीवनधन को उच्च फल- प्रद बनाने के लिए सत्पुरुषों का मार्ग मद्देनजर ही रखते रहना । अतीत के महापुरुष कैसे कैसे प्रसंगों में और कैसी कैसी परिस्थितियों में किस तरह बरते इसका काफी अभ्यास करना चाहिए | उनके सत्पराक्रमों और सद्गुणों के व्यवहार की बार बार याद रहा करे, तो वे हमारे जीवन में प्रकाश स्तंभ रूप बनें । उस से हमें बल मिले, जागृति मिले और मार्ग दर्शन भी । प्रसंग के बिना भी, ऐसे ही, उत्तम पुरुषों ने कैसी कैसी उच्च विचारणा की, भावनाएँ रखी, कैसे कैसे श्रेष्ठ उद्गार निकाले, उत्तम आचरण किये, आदि का बार बार स्मरण करें। इस में से भी चित्त निर्मल बनता जाता है । तब जीवन जीने में उसकी छाया ( प्रभाव ) पड़े, सो लाभ तो ऊपर से । जीवनधन एवं शासनधन मिलने की सुन्दर सार्थकता प्राप्त करने के लिए यह परलोक का विचार आदि सुन्दर उपाय हैं, इस से कई कई अपकृत्यों से बच सकते हैं । बेचारा चंडसोम ! वह क्रोध तथा ईर्ष्या से अंधा बना हुआ, परलोक-विचार आदि कुछ भी अपनाने को तैयार नहीं है। फलतः अपनी एक असत् कल्पना के पीछे अपनी बहन को पत्नी और अपने भाई को पर-पुरुष मानकर दोनों का हत्यारा बना । परन्तु अब घर में से उसकी पत्नी नंदिनी जब ऐसी दहाड़ मारती है कि 'ऐ दुराचारी ! तूने यह क्या किया ? तूने अपने ही प्यारे भाई- बहन की हत्या की ?' तो वह चौंक उठा ? चंडसोम का पश्चात्ताप : अब उसका क्रोध तथा उस क्रोध की खुजली मिटाने की शांति कहीं पलायन कर गयी, और सिर पीटता हुआ चिल्लाकर हृदय विदारक विलाप करने लगा कि, 'हाय रे ! यह मैंने क्या किया ? कैसा घोर कृत्य करनेवाला पापी मैं ? क्रोध में अंधा होकर मैंने अपने ही हाथों यह क्या कर डाला ? हे प्यारे सोमा । हे दुलारे (लाडले) भाई ! तुम कहाँ गये ? मैंने तुम्हें प्राणों से प्रिय बनाकर सम्हाला और मैंने ही तुम्हारे प्राण हर लिये ? हे माँ । हे पिताजी । तुम्हारे इन प्यारे बच्चों को २२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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