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________________ क्या कि सिंह और हिरन, बाघ और खरगोश, आदि प्राणी नितान्त मित्रभाव से चल रहे है ? सभी शांत है, स्वस्थ है, उनमें कोई उत्पात नहीं है। क्या वज़ह है? इसका विचार करते हुए उसे यह कल्पना आयी कि अवश्य यहाँ नजदीक ही कोई ऐसे महात्मा बिचरते होंगे जिनके भरपूर करूणामय हृदय से निकली हुई करूणा की ज्योति इस प्रदेश में फैल कर ऐसे शिकारी पशुओं को भी बिल्कुल शान्त बना रही हो ! अस्तु, चलूँ, देखू आगे क्या है ? कुमार कुवलयचन्द्र ने आगे चलते चलते दूर एक पेड़ के नीचे महात्मा महर्षि को बैठे हुए देखा । उनके दाहिनी ओर एक दिव्य पुरूष और बायीं ओर एक सिंह शान्त ढंग से बैठा हुआ देखा । कैसे थे महर्षि ? तप तथा नियमों द्वारा सुखाये हुए गात्रों वाले, तो भी तेज - आत्मतेज - ओज से ज्वलन्त दीप्तिमान थे। मानों मूर्तिमान् धर्म ही न हो ? अथवा मूर्तिमान उपशम ही न हो ? ऐसे वे महामुनि थे, शोभा और सौंदर्य के मानो भंडार हो । मानों कान्ति के घर हों। गुणों के निधि, क्षमा की खान, बुद्धि के मंदिर और सौम्यता के निवास ।। __ महामुनि-महर्षि की विशेषताओं में क्या बताया ? विद्वत्ता नहीं, व्याख्यानशक्ति नहीं, विपुल परिवार नहीं, किन्तु तप, नियम, आत्मतेज, अहिंसादि धर्म, उपशम, आत्म-सौंदर्य-गुणनिधान, क्षमा-भंडार सद्बुद्धि वैभव और सौम्यता । ऐसा क्यों ? इसलिए कि दुनिया के मनुष्य में विद्वत्ता तो चाहे अन्य प्रकार से भी हो, और शास्त्र-विद्वत्ता किसी सामान्य साधु में भी संभव है, वैसे परिवार तो अभव्य आचार्य के पास भी बड़ा हो सकता है, उससे वे कोई महामुनि थोडे ही होते है ? आत्मा उच्च स्तर पर तब आती है जब उसमें तप, नियम-अहिंसादि, उपशमसौम्यता और औदार्य आदि गण आते हैं । मानव जीवन जीकर पहले यही करने योग्य है कि जिससे यह सब प्राप्त हो । फिर चाहे शुरु शुरु में ये तप-नियमादि आत्मवैभव उत्कृष्ट कोटि न सही, तो भी उल्लेखनीय नीचे के स्तर का भी स्वात्मा में जगाया जाय । जीवन मिला है तो जी लिया जाएगा परन्तु लुहार की धमन की तरह श्वासोच्छ्वास लेते और छोडते हुए या पशु की तरह आहार-विषय-परिग्रहनिद्रा के चक्कर में ही भटकते रह कर, पसन्द है ऐसा जीवन आपको ? बढ़ियाबढिया खाया-पिया, इकट्ठा किया भोगा मान-सम्मान पाया और ऐशो आराम किया, बस जीवन सफल ! ऐसा ? इतना तो जानवर को भी पुण्य के अनुपात में मिलता है, और उसे भोगना भी आता है | बुद्धिमान मनुष्य के तौर पर इसमें १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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