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________________ ॥ ऋणेन न व्यवहर्त्तव्यम् || यूँ है भोलो-बावलो एक आदमी को उधार लेने की आदत थी। वह पिछली उधारी चुकाकर नई उधारी कर लेता था। इस प्रकार वह हमेशा उधारी के चक्कर में फँसा रहता था। कभी-कभी वह परिचितों से भी उधार सामान खरीद लाता। उन्हें वह कुछ नकद देता, शेष कभी नहीं चुकाता था। परिचित व्यक्ति उससे संकोचवश कभी माँगते नहीं थे। वे सोचते थे कि माँगने पर उसे बुरा लगेगा। इससे पैसा तो वसूल होगा नहीं, उलटे दुश्मन बन जावेगा। इस प्रकार धन और मित्रता दोनों खोने की भूल क्यों की जाये ? एक दिन की बात है। एक परिचित सेठ की दुकान से वह पहले ही सामान ले चुका था और उधारी चुका नहीं पाया था इसलिए उससे और उधारी लेने की हिम्मत नहीं हो रही थी, पर घर पर सामान की बहुत जरूरत थी। आखिर उसने ऐसा अवसर देखा, जब सेठ दुकान पर नहीं था, पर उसका पुत्र दुकान पर था। वह दुकान पर गया और सेठ के पुत्र से एक रुपये का सामान खरीदा। फिर उसने एक चवन्नी देते हुए कहा कि बाकी के पैसे बाद में दे दूँगा। इतना कहकर वह चला गया। जब सेठ को यह बात मालूम हुई, तब उसने पुत्र से कहा कि तूने यह जो उधारी की है। वह नहीं पटेगी। मैं उस आदमी का स्वभाव जानता हूँ। वह शेष रकम कभी नहीं चुकायेगा । अणी कमायो पूण, पण थे केवल पावलो । लेसी देसी कूण ? यूँ है भोलो-बावलो ।। इसलिए व्यापार हमेशा चतुराई से करना चाहिये यूँ व्यापार में भोलापन काम नहीं आता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org 1
SR No.003221
Book TitleStory Story
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherK P Sanghvi Group
Publication Year2011
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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