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________________ निष्पत्ति वि. सं. २०४१ (ई. सन् १९८४ ) | मई का महीना । आचार्यश्री तुलसी एवं युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ( वर्तमान में आचार्य महाप्रज्ञ) जैन विश्व भारती, लाडनूं के भिक्षु-विहार में विराज रहे थे। वहां से वे चातुर्मास हेतु जोधपुर पधारने वाले थे। उन दिनों युवाचार्यप्रवर महाप्रज्ञ के उपपात में हमारे अध्ययन का क्रम चल रहा था। एक ★ दिन युवाचार्यश्री हमें 'शान्तसुधारस' पढा रहे थे। कुछ संतों ने बीच में ही अपनी मनोभावना प्रकट करते हुए कहा - भन्ते ! जिस प्रकार मुनि राजेन्द्रकुमारजी ने 'शान्तसुधारस' काव्य का हिन्दी में अनुवाद और संपादन किया है उसी प्रकार यदि 'सिन्दूरप्रकर' ग्रंथ भी तैयार हो जाए तो वह हम सबके लिए पठनीय और उपयोगी हो सकता है। युवाचार्यश्री ने मेरी ओर देखा। उन्होंने मुझे संकेत देते हुए फरमाया- कालान्तर में जब भी तुम्हें समय मिले इस कार्य को कर देना। मैंने करबद्ध होते हुए 'तहत्त' कह दिया । वि. सं. २०५८ (ई. सन् २००१) में आचार्यश्री महाप्रज्ञ अपना पावस- प्रवास बीदासर में बिता रहे थे। उससे पूर्व वे आगामी चार चातुर्मासों की घोषणा कर चुके थे। उनके लिए उनकी चार वर्षों की एक प्रलंब और दीर्घकालीन यात्रा सुनिश्चित थी । ५ दिसम्बर, २००१ का मंगल प्रभात । सुजानगढ़ की पावनस्थली । वहीं से आचार्यप्रवर ने अहिंसा यात्रा के नाम से मंगल यात्रा का शुभारंभ किया। उस यात्रा का प्रथम मर्यादा महोत्सव ' पचपदरा ' ( मारवाड़) में संपन्न हुआ । तत्पश्चात् वे विहरण करते हुए सिवाना फाण्टा पधारे। वहां सिवांचीमालाणी भवन में विराजे । पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मैंने अपने इष्टदेव का स्मरण कर 'सिन्दूरप्रकर' काव्य का अनुवाद कार्य वहीं से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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