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________________ उद्बोधक कथाएं ३८९ किया । परिचय पूछने पर उसने सारी घटना कह सुनाई, पर अपने गर्भ की बात गुप्त रखी । साध्वियों ने उसे वैराग्यपरक उपदेश देते हुए जीवन की क्षणभंगुरता का बोध कराया । उपदेश सुनकर रानी विरक्त हुई और उसने आर्यिकाओं से दीक्षा ग्रहण कर ली। ज्यों-ज्यों संयम - पर्याय के दिन बीत रहे थे त्यों-त्यों उदर में गर्भ भी वृद्धिंगत हो रहा था। एक दिन साध्वीप्रमुखा महत्तरिका ने गर्भ के लक्षणों को देखकर गर्भ के विषय में पूछ लिया। साध्वी रानी ने सरलता से सारी बातें रख दी। गर्भ के दिन पूरे होने पर उसने शय्यातर के घर जाकर प्रसव किया। उस नवजात शिशु को नामांकित मुद्रा पहनाकर श्मशान में छोड़ दिया गया। श्मशानपालक ने शिशु को बिना मां-बाप का जानकर उसे उठा लिया और उसका पालन-पोषण करने के लिए अपनी स्त्री को दे दिया । उसका नामकरण किया गया अवकीर्णक । वह श्मशानपालक के यहां बड़ा होने लगा। एक बार उसका शरीर खुजली के रोग से आक्रान्त हो गया। वह दिनभर अपने शरीर को खुजलाता रहता था, ऐसा करने से उसका नाम 'करकण्डु' भी पड़ गया। करकण्डु बड़ा होने पर श्मशान की रक्षा करने लगा। वहां पास में ही एक बांस का वन था। एक दिन दो साधु वहां से निकल रहे थे। उनमें से एक साधु दण्ड के लक्षणों को जानता था । उसने भविष्यवाणी करते हुए कहा- जो कोई इस प्रकार के दण्ड को ग्रहण करेगा वह अवश्य ही राजा होगा । करकण्डु और ब्राह्मण के एक लड़के ने इस बात को सुन लिया। दोनों में दण्ड लेने के लिए विवाद छिड़ गया । मध्यस्थ व्यक्तियों ने उस विवाद को खत्म करते हुए वह दण्ड करकण्डु को दे दिया, क्योंकि वह उसकी भूमि की संपत्ति थी और साथ में राजा बनने के बाद एक गांव ब्राह्मण-पुत्र को देने के लिए भी कह दिया । करकण्डु ने उसे स्वीकार कर लिया। यह जानकर ब्राह्मण प्रतिशोध की अग्नि से जलने लगे। उन्होंने करकण्डु को मारने का षड्यंत्र रचा। उसके पिता चांडाल को जब इसकी भनक पड़ी तो वह परिवारसहित कांचनपुर चला गया। अचानक वहां का राजा मर गया। उसके कोई पुत्र नहीं था। राजा को चुनने के लिए राज्याधिकारियों ने एक घोड़े को अधिवासित किया, उसे नगर में घुमाया। घोड़ा सीधा वहीं रुका, जहां करकण्डु विश्राम कर रहा था। घोड़े ने कुमार करकण्डु की प्रदक्षिणा की। वह उसके निकट ठहर गया । सामन्त For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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