SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७६ सिन्दूरप्रकर दुष्कृत्यों को अवश्य कर लेता है, पर बाद में उसे भी अनुताप, संताप और पश्चात्ताप की अग्नि में झुलसना होता है। जब क्रूरता अपनी चरम सीमा तक पहुंचती है तब कहीं करुणा का उदय होता है। दृढप्रहारी मन ही मन सोच रहा था - मैंने अपनी रसलोलुपता के कारण अर्थ का अनर्थ कर डाला, शब्दों को न सह सकने के कारण चार प्राणियों को मौत के घाट उतार दिया। क्या मैं इनकी हत्या कर अपने आप में शान्त हो गया ? क्या अशान्ति अब मेरे भीतर में नहीं है ? मैंने कौनसा अच्छा कार्य किया? मेरे जीवन में सदा हत्याओं का ही दौर चला। मैंने कितनी कितनी अबलाओं का सुहाग लूटा ? कितनों को मैंने बेघर - बार किया, फिर भी मैंने सुख-शान्ति का जीवन नहीं जीया । पता नहीं आज इन हत्याओं से मेरा मन द्रवित क्यों हो रहा है? लगता है मेरी आत्मा अब पापकर्म से उबरना चाहती है। तब क्या मुझे अपने दोषों की शुद्धि के लिए पर्वत की कन्दरा में जाना चाहिए अथवा जंगल में ? नहीं, नहीं, यह तो मेरा मात्र पलायन ही होगा। मुझे लोगों के बीच रहकर ही साधना करनी चाहिए। ऐसा सोचकर दृढप्रहारी नगर की ओर बढ गया। उसने जनसंकुल स्थान में स्थित रह कर ही साधना करनी चाही। नगर के चार मुख्य दरवाजे थे। उन द्वारों पर हमेशा लोगों की भीड़ बनी रहती थी । लोगों का आवागमन भी बहुलता से होता रहता था। दस्यु सम्राट् ने क्रमशः एक-एक द्वार पर स्थित रहकर अपने कृत दुष्कर्मों का निर्जरण करना चाहा। पहले उसने पूर्वाभिमुख द्वार का चयन किया और वह वहां ध्यानस्थ होकर खड़ा हो गया। उधर से आने-जाने वाले लोग उसको देखते देखते ही प्रतिशोध की भावना से उबल पड़ते । कोई कहता -- यह वही हत्यारा है जिसने मेरे भाई को मारा था। कोई कहता--अरे! यह मेरे बाप का हत्यारा है। कोई उसे चोर, डाकू कहकर उस पर पत्थर फेंकता तो कोई उस पर लाठी और मुक्के का प्रहार कर निकल जाता। कोई उसे गालियां बकता तो कोई उसे धक्का देकर चला जाता । दृढप्रहारी दुष्कर्मों का अर्जन करने में जितना शूरवीर था उससे अधिक शूरवीर था कृतकर्मों के निर्जरण में। वह सब प्रकार की यातनाओं को, सब प्रकार के उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन कर रहा था। न उसे किसी पर द्वेष था और न किसी पर राग । वह सब लोगों की ताड़नाप्रताड़ना, भर्त्सना, तिरस्कार, अवमानना अवहेलना को यह मानकर झेल रहा था कि 'तूने भी तो कितने अपराध किए है।' अन्ततः दुश्चीर्ण कर्मों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy