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उद्बोधक कथाएं
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दे दो। वे इस आंख से उस आंख को तोलकर तुमको दे देंगे। क्योंकि यहां तो आंखें गिरवी रखने का धन्धा है। उसमें कैसे पता चलेगा कि तुम्हारी आंख कौन-सी है ? वह काना व्यक्ति यह सुनते ही सकपका गया, उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। वह बोले तो क्या बोले ? उसकी सारी पोल खुल गई। उसने अपने दुर्भावना को स्वीकार कर लिया । धन्यकुमार की औत्पत्तिकी बुद्धि से गोभद्र सेठ के सम्मान की रक्षा हो गई और साथ में धन और अहेतुक संकट भी टल गया। सेठ ने धन्यकुमार पर प्रसन्न होकर अपनी पुत्री सुभद्रा का विवाह उससे कर दिया। अब धन्यकुमार तीनों पत्नियों के साथ सानन्द रहने लगा ।
उधर उज्जयिनी नरेश चण्डप्रद्योत अपने कुशल मंत्री धन्यकुमार के चले जाने से अत्यन्त दुःखी हुआ । उसने कुमार के तीनों भाइयों और परिवार के अन्य सदस्यों को भी अपने राज्य से इसलिए निष्कासित कर दिया कि धन्यकुमार के जाने में उन भाइयों की अहंभूमिका रही थी । सारा परिवार गांव-गांव, नगर-नगर में घूमता-फिरता हुआ एक दिन राजगृही में आ पहुंचा। धन्यकुमार को अपने भाइयों और माता-पिता के आगमन की सूचना मिली। उसने अतीत में किए गए भाइयों के दुर्व्यवहार को भुलाकर सद्व्यवहार का बर्ताव किया और उनको अपने पास रख लिया। सारा परिवार सुख-समृद्धिपूर्वक वहां रहने लगा। तीनों भाई काफी ठोकरें खा चुके थे, फिर भी उनकी आदतों में कोई परिवर्तन नहीं आया। अब भी वे अपनी दुर्जनता को पूर्ववत् पाल रहे थे। उनकी दुर्जनता से पीड़ित होकर धन्यकुमार को पुनः एक बार राजगृही नगर छोड़ कर
शाम्बी नगरी में जाना पड़ा। वहां के महाराज शतानीक के यहां रत्नों की परीक्षा में वह उत्तीर्ण हुआ। राजा ने प्रसन्न होकर उसे राजसी सम्मान दिया और अपनी पुत्री सौभाग्यमंजरी का पाणिग्रहण भी उसके साथ कर दिया। राजा ने पुत्री के दहेज में पांच सौ गांवों की जागीर उसे प्रदान की। धन्यकुमार ने स्वतंत्ररूप से धनपुर नाम का नगर बसाया और वह वहीं रहने लग गया।
दुर्जन व्यक्ति कभी भी, कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में सुखी नहीं हो सकता, यह एक सचाई है। तीनों भाई अपनी दुर्जनता के कारण अपना काफी अनिष्ट कर चुके थे, फिर भी वे संभले नहीं। एक ओर धन का अभाव तो दूसरी ओर दुर्जनता की पराकाष्ठा । छोटे भाई धन्यकुमार ने अपनी सज्जनता के कारण उनकी आर्थिक सहायता की, उनके परिवार
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