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ग्रंथ-परिचय 'सूक्तिमुक्तावली' आचार्य सोमप्रभ की एक लोकप्रिय कृति है। वे बड़गच्छ के आचार्य थे। आद्याक्षर को आधार मानकर 'सिन्दूरप्रकर' इस अपर नाम से लोगों में इसकी अधिक प्रसिद्धि है। इस कृति का एक नाम सोमशतक भी मिलता है। इसका रचनाकाल वि. सं. १२५० है। इस रचना में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील
और अपरिग्रह आदि इक्कीस प्रकरण तथा मनुष्यजन्म की दुर्लभता, धर्म की प्रधानता आदि प्रकीर्णक विषय भी गुम्फित हैं। यह सौ श्लोकों का ग्रंथ है। श्लोकरचना में विविध छन्दों का प्रयोग किया गया है। उनमें शार्दूलविक्रीडित, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, मालिनी, वंशस्थ, हरिणी, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति आदि प्रसिद्ध हैं। यह रचना नए नए प्रयोगों का भंडार है। वे सब रचनाकार के वैदुष्य को प्रकट करने वाले हैं। शब्दों का सौष्ठव, उनका लालित्य, धातुओं के नव-नव प्रयोग, आलंकारिक भाषा, सानुप्रास प्रयोग आदि काव्य के गौरव और काव्यप्रणेता के शिल्पत्व को अभिव्यक्त करने वाले हैं। इस कृति पर अनेक टीकाएं लिखी गई हैं। वि. सं. १५०५ (वीर नि. १९७५) में चरित्रवर्धन सूरि ने ४८०० श्लोकप्रमाण वाली टीका लिखकर एक महान् कार्य किया। इसके पश्चात् वि. सं. १६६० (वीर नि. २१३०) में हर्षकीर्ति सूरि ने भी टीका लिखी। वि. सं. १६९१ (वीर नि. २१६१) में पंडित बनारसीदासजी ने इसका हिन्दी में पद्यानुवाद किया। प्रस्तुत कृति वैराग्यरस से परिपूर्ण, पाण्डित्यपूर्ण, विविध विषयों का अवबोध कराने वाली, सदुपदेशात्मक, सरस, सुबोध और सुगम्य है।
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