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________________ मुनि जितेन्द्रकुमारजी युवा सन्त हैं। उनमें कर्मजाशक्ति, सेवाशक्ति और ग्रहणशक्ति तीनों का समन्वय है। उनके अमूल्य सुझाव भी मेरे इस कार्य में कार्यकारी बने हैं। उन्होंने वर्ग के छोटेमोटे सभी कार्यों का दायित्व लेकर न केवल मुनिश्री दुलहराजजी स्वामी की सेवा की है, मुझे भी वर्ग के कार्यों से निर्भार बनाया है। यदि मुझे उनका सहयोग नहीं मिलता तो संभवतः मेरा यह कार्य कितना लंबा हो जाता। इस अर्थ में मैं उन्हें साधुवाद देता हूं और मंगलभावना करता हूं कि भविष्य में उनकी शक्तियां और अधिक विकसमान रहें। यह ग्रंथ कितना सार्थक और उपयोगी बना है, इसका मूल्यांकन और गुणांकन सुधी पाठक ही कर सकेंगे। मेरा जो करणीय कार्य था वह मैंने कर दिया। अब उसे वीक्षा, परीक्षा और समीक्षा के मानकबिन्दुओं से प्रमाणित होने की अपेक्षा है। अन्त में मैं सबके प्रति अपनी आंतरिक कृतज्ञता, विनम्रता एवं सद्भावना ज्ञापित करता हूं और मंगलभावना करता हूं कि विविध विषयों से गुम्फित यह सरस, सरल, सदुपदेशात्मक काव्य अपनी सुवास से जन-जन के अन्तःकरण को सुवासित-भावित करता रहे, चेतना के रूपान्तरण में निमित्त बने, इसी शुभ मंगल-भावना के साथ । -मुनि राजेन्द्रकुमार १९ सितम्बर २००६ प्रेक्षाविहार, भिवानी (हरियाणा) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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