SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौबीस तीर्थंकर स्तवन जो अनादि से व्यक्त नहीं था त्रैकालिक ध्रुव ज्ञायक भाव। वह युगादि में किया प्रकाशित वन्दन ऋषभ जिनेश्वर राव।।१।। जिसने जीत लिया त्रिभुवन को मोह शत्रु वह प्रबल महान। उसे जीतकर शिवपद पाया वन्दन अजितनाथ भगवान ।।२।। काललब्धि बिन सदा असम्भव निज सन्मुखता का पुरुषार्थ। निर्मल परिणति के स्वकाल में सम्भव जिनने पाया अर्थ ।।३।। त्रिभुवन जिनके चरणों का अभिनंदन करता तीनों काल। वेस्वभाव का अभिनन्दन कर पहुँचे शिवपुर में तत्काल॥४॥ निज आश्रय से ही सुख होता यही सुमति जिन बतलाते। सुमतिनाथ प्रभु की पूजन कर भव्य जीव शिवसुख पाते।।५।। पद्मप्रभ के पद-पंकज की सौरभ से सुरभित त्रिभुवन । गुण अनन्त के सुमनों से शोभित श्री जिनवर का उपवन ॥६॥ श्री सुपार्श्व के शुभसु-पार्श्व में जिनकी परिणति करे विराम । वे पाते हैं गुण अनन्त से भूषित सिद्ध सदन अभिराम ||७|| चार चन्द्रसम सदा सुशीत ल चेतन चन्द्रप्रभ जिनराज । गुण अनन्त की कला विभूषित प्रभुने पाया निजपद राज ||८|| पुष्पदन्त सम गुण आवलि से सदा सुशोभित हैं भगवान । मोक्षमार्गकी सुविधि बताकर भविजन का करते कल्याण ॥६॥ चन्द्ररिण सम शीतल वचनों से हरते जग का आताप । स्याद्वादमय दिव्यध्वनि से मोक्षमार्ग बतलाते आप॥१०॥ त्रिभुवन के श्रेयस्कर हैं श्रेयांसनाथ जिनवर गुणखान । निज स्वभाव ही परम श्रेय का केन्द्रबिन्दुकहते भगवान ।।११।। शत इन्द्रों से पूजित जग में वासुपूज्य जिनराज महान । स्वाश्रित परिणति द्वारा पूजित पञ्चभाव गुणों की खान ।।१२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003214
Book TitleJain Adhyatma Academy of North America
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Center of Southern America
PublisherUSA Jain Center Southern California
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy