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________________ २४. लौकान्तिक देवों का ब्रह्मलोक निवास स्थान है। २५. सारस्वत, मादित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्यावाध और अरिष्ट ये लौकान्तिक देव हैं। २६. विजयादिक में दो चरमावाले देव होते हैं। २७. उपपाद जन्मवाले और मनुष्यों के सिवा शेष सब जीव तिर्यञ्च योनिवाले हैं। २८. असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, दीपकुमार और शेष भवनवासियों की उत्कृष्ट स्थिति क्रम से एक सागर, तीन पल्य, ढाई पल्य, दो पत्य और डेढपल्य प्रमाण है। २६. सौधर्म और ऐशान कल्प में दो सागर से कुछ अधिक उत्कृष्ट स्थिति है। ३०. सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में सात सागर से कुछ अधिक उत्कुष्ट स्थिति है। ३१. ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल से लेकर प्रत्येक यगल में पारण-अच्यत तक क्रम से साधिक तोन से अधिक सात सागरोपम, साधिक सात से अधिक सात सागरोपम, साधिक नौ से अधिक सात सागरोपम, साधिक ग्यारह से अधिक सात सागरोपम, तेरह से अधिक सात सागरोपम और पन्द्रह से अधिक सात सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । ३२. आरण-अच्युत से ऊपर नौ मवेयक में से प्रत्येक में नौ अन दिश में, चार विजयादिक में एक-एक सागर अधिक उत्कृष्ट स्थिति है। तथा सर्वार्थ सिद्धी में पूरी तैंतीस सागर स्थिति है । ३३. सौधर्म और ऐशान कल्प में जघन्य स्थिति साधिक एक पल्य है। ३४. आगे-मागे पूर्व-पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति अनन्तर-अनन्तर की जघन्य स्थिति है। ३५. दूसरी आदि ममियों में नरकों को पूर्व-पूर्व को उत्कृष्ट स्थिति ही अनन्तर-अनन्तर की जघन्य स्थिति है। ३६. प्रथम भूमि में दस हजार वर्ष जघन्य स्थिति है। ३७. भवनवासियों में भी दस हजार वर्ष जघन्य है। ३६. और उत्कृष्ट स्थिति साधिक एक पल्य है। ४०. ज्योतिषियों की उत्कृष्ट स्थिति साधिक एक पल्य है। ४१. ज्योतिषियों की जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति का आठवां भाग है। ४२. सब लौकान्तिकों को स्थिति आठ सागर है । पञ्चम अध्याय १. धर्म, अधर्म, आकाश और पद्गल ये अजीवकाय हैं । २. ये धर्म, अधर्म, आकाश और पुदगल द्रव्य हैं। ३. जीव भो द्रव्य हैं। ४. उक्त द्रव्य नित्य हैं, अवस्थित हैं और अरूपी हैं। ५. पुद्गल रूपी हैं। ६. आकाश तक एक-एक द्रव्य हैं। ७. तथा निष्क्रिय हैं। ८, धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात प्रदेश हैं। ६. आकाश के अनन्त प्रदेश हैं। १०. पूदगल के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं। ११. परमाणु के प्रदेश नहीं होते। १२. इन धर्मादिक द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में हैं। पन 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003214
Book TitleJain Adhyatma Academy of North America
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Center of Southern America
PublisherUSA Jain Center Southern California
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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