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________________ प्रवचनसार पद्यानुवाद शुभपरिणामाधिकार देव-गुरु-यति अर्चना अर दान उपवासादि में । अर शील में जो लीन शुभ उपयोगमय वह आतमा ॥६९॥ अरे शुभ उपयोग से जो युक्त वह तिर्यग्गति। अर देव मानुष गति में रह प्राप्त करता विषयसुख ॥७०।। उपदेश से है सिद्ध देवों के नहीं है स्वभावसुख। तनवेदना से दुखी वे रमणीक विषयों में रमे ।।७१।। नर-नारकी तिर्यंच सुर यदि देहसंभव दुःख को। अनुभव करें तो फिर कहो उपयोग कैसे शुभ-अशुभ?॥७२॥ वज्रधर अर चक्रधर सब पुण्यफल को भोगते। देहादि की वृद्धि करें पर सुखी हों ऐसे लगे ॥७३।। शुभभाव से उत्पन्न विध-विध पुण्य यदि विद्यमान हैं। तो वे सभी सुरलोक में विषयेषणा पैदा करें।।७४।। अरे जिनकी उदित तृष्णा दुःख से संतप्त वे। है दुखी फिर भी आमरण वे विषयसुख ही चाहते॥७५।। इन्द्रियसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है। है बंध का कारण दखद परतंत्र है विच्छिन्न हैं। ७६।। पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है - जो न माने बात ये। संसार-सागर में भ्रमें मद-मोह से आच्छन्न वे।।७७।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा३-४ (३) अन्तर में आनन्द आयो, अन्तर में आनन्द आयो जिनवर दर्शन पायो । अन्तर्मुख जिनमुद्रा लखकर आतम दर्शन पायो जी पायो । टेक।। वीतराग छवि सबसे न्यारी । भव्यजनों को आनन्दकारी ।। दर्शनकर सुख पायो जी पायो, अन्तर में आनन्द आयो...।।१।। पुण्य उदय है आज हमारे, दर्शन कर जिनराज तुम्हारे ।। सम्यग्दर्शन पायो जी पायो, अन्तर में आनन्द आयो... ।।२।। मेघ घटा सम जिनवर गरजे । दिव्यध्वनि से अमृत बरसे ।। . भव आताप नशायो, नशायो, अन्तर में आनन्द आयो...।।३।। 41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003214
Book TitleJain Adhyatma Academy of North America
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Center of Southern America
PublisherUSA Jain Center Southern California
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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