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द्रव्य और गुण पर्यायों में सदा महकती चेतन गन्ध । पंच बालयति के चरणों में क्षय हो राग-द्वेष दुर्गन्ध ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा । परिणामों के ध्रुव प्रवाह में बहे अखण्डित ज्ञायकभाव । द्रव्य-क्षेत्र अरु काल-भाव मेंनित्य अभेद अखण्ड स्वभाव || निज गुण- पर्यायों में प्रभु का अक्षय पद अविचल अभिराम । पंच बालयति जिनवर ! मेरी परिणति में नित करो विराम ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । गुण अनन्त के सुमनों से हो शोभित तुम ज्ञायक उद्यान । कालिक ध्रुव परिणति में ही प्रतिपल करते नित्य विराम ।। ध्रुव के आश्रय से प्रभु तुमने नष्ट किया है काम-कलङ्क | पंच बालयति के चरणों में धुला आज परिणति का पङ्क | ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । हे प्रभु! अपने ध्रुव प्रवाह में रहो निरन्तर शाश्वत तृप्त । षट्स की क्या चाह तुम्हें तुम निजरस के अनुभव में मस्त ॥ तृप्त हुई अब मेरी परिणति ज्ञायक में करके विश्राम | पंच बालयति के चरणों में क्षुधा रोग का रहा न नाम ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । सहज ज्ञानमय ज्योति प्रज्ज्वलित रहती ज्ञायक के आधार । प्रभो ! ज्ञानदर्पण में त्रिभुवन पल-पल होता ज्ञेयाकार ॥ अहो निरखती मम श्रुत परणति अपने में तव केवलज्ञान ।
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पंच बालयति के प्रसाद से प्रगट हुआ निज ज्ञायक भान ॥ ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा । कालिक परिणति में व्यापी ज्ञान सूर्य की निर्मल धूप । जिससे सकल कर्म-मल क्षय कर हुए प्रभो! तुम त्रिभुवन भूप ॥ मैं ध्याता तुम ध्येय हमारे मैं हूँ तुममय एकाकार । पंच बालयति जिनवर ! मेरे शीघ्र नशो अब त्रिविध विकार ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो अष्टकर्मविनाशनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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