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तेरी पूजा का फल प्रभुवर ! हों शान्त शुभाशुभ ज्वालायें । मधुकल्प फलों-सी जीवन में, प्रभु शान्त लतायें छा जायें। ॐ ह्रीं श्रीसीमंधरजिनेन्द्रायमोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।। निर्मल जल-सा प्रभु निजस्वरूप, पहिचान उसी में लीन हुए। भवताप उतरने लगा तभी, चन्दन-सी उठी हिलोर हिये ।। अविराम भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति प्रसून लगे खिलने। क्षुत् तृषा अठारह दोष क्षीण, कैवल्य प्रदीप लगा जलने ।। मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए। फल हुआ प्रभो ! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन व्यक्त हुए।। ॐ ह्रीं श्रीसीमंधरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि.स्वाहा।
जयमाला वैदही हो देह में, अतः विदेही नाथ । सीमंधर निज सीम में, शाश्वत करो निवास। श्रीजिन पूर्व विदेह में, विद्यमान अरहंत ।
वीतराग सर्वज्ञ श्री सीमंधर भगवंत ।। हे ज्ञानस्वभावी सीमंधर, तुम हो असीम आनन्द रूप। अपनी सीमा में सीमित हो, फिर भी हो तुम त्रैलोक्य भूप ।। मोहान्धकार के नाश हेतु, तुम ही हो दिनकर अतिप्रचण्ड। हो स्वयं अखण्डित कर्मशत्रु को, किया आपने खण्ड-खण्ड ।। गृहवास राग की आग त्याग, धारा तुमने मुनिपद महान । आतमस्वभाव साधन द्वारा, पाया तुमने परिपूर्ण ज्ञान ।। तुम दर्शन ज्ञान-दिवाकर हो, वीरज मंडित आनन्द कन्द। तुम हुए स्वयं में स्वयं पूर्ण, तुम ही हो सच्चे पूर्णचन्द ।। पूरव विदेह में हे जिनवर, हो आप आज भी विद्यमान। हो रहा दिव्य उपदेश भव्य, पा रहे नित्य अध्यात्म ज्ञान ।। श्री कुन्दकुन्द आचार्य देव को, मिला आपसे दिव्यज्ञान । आत्मानुभूति से कर प्रमाण, पाया उनने आनन्द महान ।। पाया था उनने समयसार, अपनाया उनने समयसार । समझाया उनने समयसार, हो गये स्वयं वे समयसार ।।
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