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अन्तिम शुक्लध्यान प्रगटाया, शेष अघाति विमुक्त हुए ।
कार्तिक कृष्ण अमावस के दिन, वीर जिनेश्वर सिद्ध हुए । भाव... ॥ ॐ ह्रीं श्री कार्तिककृष्णामावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीमहावीर - जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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जयमाला
(सोरठा)
वर्द्धमान श्रीवीर, सन्मति अरू महावीर जी । जयवन्तो अतिवीर, पंचनाम जग में प्रसिद्ध || (जोगीरासा)
चित्स्वरूप प्रगटाया प्रभुवर, चित्स्वरूप प्रगटाया । स्वयं स्वयंभू होय जिनेश्वर, चित्स्वरूप प्रगटाया || टेक।।
हो सबसे निरपेक्ष सिंह के, भव में सम्यक् पाया । स्वाश्रित आत्माराधन का ही, सत्य मार्ग अपनाया ॥१॥
बढ़ती गई सुभाव विशुद्धि, दशवें भव में स्वामी । आप हुए अन्तिम तीर्थंकर, भरतक्षेत्र में नामी ॥२॥ इन्द्रादिक से पूजित जिनवर, सम्यक्ज्ञानि विरागी । इन्द्रिय भोगों की सामग्री, दुख निमित्त लख त्यागी ॥ ३ ॥ जब शादी प्रस्ताव आपके, सन्मुख जिनवर आया आत्मवंचना लगी हृदय में, दृढ़ वैराग्य समाया ॥ ४ ॥ अज्ञानी सम भव में फँसना, 'क्या इसमें चतुराई ? ' । भव भव में भोगों में फँसकर, भारी विपदा पाई ॥ ५ ॥ उपादेय निज शुद्धातम ही, अब तो भाऊँ ध्याऊँ । धरूँ सहज मुनिधर्म परम साधक हो शिव पद पाऊँ ॥ ६॥ इस विचार का अनुमोदन कर, लौकान्तिक हर्षाये । आप हुए निर्ग्रन्थ ध्यान से, घातिकर्म भगाये ||७|| हुए सु गौतम गणधर पहले, दिव्यध्वनि सुखकारी । खिरी श्रावणी वदि एकम को, त्रिभुवन मंगलकारी ||८||
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