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द्रव्य भाव- नोकर्म शून्य, चैतन्य प्रभु जब से देखा । शुद्ध परिणति प्रकट हुई, मिटती परभावों की रेखा ॥ श्री देव - शास्त्र - गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो । ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
अहो पूर्ण निज वैभव लख, नहीं कामना शेष रही ।
हो गया सहज मैं निर्वाक, निज में ही अब मुक्ति दिखी ॥ श्री देव ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । निज से उत्तम दिखे न कुछ भी, पाई निज अनर्घ्य माया । निज में ही अब हुआ समर्पण, ज्ञानानन्द प्रकट पाया ॥ श्री देव ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो ऽनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला
ज्ञानमात्र परमात्मा, परम प्रसिद्ध कराय । धन्य आज मैं हो गया, निज स्वरूप को पाय ॥ (हरिगीत - छन्द)
चैतन्य में ही मग्न हो, चैतन्य दरशाते अहो । निर्दोष श्री सर्वज्ञ प्रभुवर, जगत्साक्षी हो विभो ॥ सच्चे प्रणेता धर्म के, शिवमार्ग प्रकटाया प्रभो । कल्याण वाँछक भविजनों के आप ही आदर्श हो ।
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शिवमार्ग पाया आप से, भवि पा रहे अरु पायेंगे । स्वाराधना से आप सम ही, हुए हो रहे होयेंगे ॥ तव दिव्यध्वनि में दिव्य-आत्मिक, भाव उद्घोषित हुए । गणधर गुरु आम्नाय में, शुभ शास्त्र तब निर्मित हुए । निर्ग्रथ गुरु के ग्रन्थ ये, नित्य प्रेरणायें दे रहे । निजभाव अरु परभाव का, शुभ भेदज्ञान जगा रहे ।। इस दुषम भीषण काल में, जिनदेव का जब हो विरह । तब मात सम उपकार करते, शास्त्र ही आधार हैं ।।
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