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परिशिष्ट १ श्रीविजयानन्दसूरीश्वरकृत ॥ उपदेशकावनी
( सधैया एकतीसा)
श्री पार्श्वनाथाय नमो नमः ॐ नीत पंच मीत समर समर चीत अजर अमर हीत नीत चीत धरीए, सूरि उज्झा मुनि पुज्जा जानत अरथ गुज्जा मनमथ मथन कथनसुं न ठरीए । बार आठ षटतीस पणवीस सातवीस सत आठ गुण ईस माल बीच करीए,
एसो विभु ॐकार बावन वरण सार आतम आधार पार तार मोक्ष वरीए ॥१॥ अथ देवस्तुति :
नथन करन पन हनन करमघन धरत अनघ मन मथन मदनको, अजर अमर अज अलख अमल जस अचल परम पद धरत सदनको। समर अमर वर गनधर नगवर थकत कथन कर भरम कदनको, सरन परत तभ(स) नमत अनघ जस अतम परम पद रमन ददनको ॥२॥ नमो नीत देव देव आतम अमर सेव इंद चंद तार वृंद सेवे कर जोरके, पांच अंतराय भीत रति ने अरति जीत हास शोक काम वीत(धीन ?) मिथ्यागिरि तोरके । निंद ने अत्याग राग द्वेष ने अज्ञान याग अष्टादश दोष हन निज गुण फोरके,
रूप ज्ञान मोक्ष जश वध ने वैराग सिरी इच्छा धर्म वीरज जतन ईश घोरके ॥३॥ अथ गुरुस्तुति :
मगन भजन मग धरम सदन जग ठरत मदन अग भग तज सरके, कटत करम वन हरत भरम जन भवबन सघन हटत सब जरके । नमत अमरवर परत सरन तस करत सरन भर अघ मग टरके, धरत अमल मन भरत अचर धन करत अतम जन पग लग परके ॥ ४ ॥ महामुनि पूर गुनी निज गुन लेत चुनी मार धार मार धुनि वुनी सुख सेजको, ज्ञान ते निहार छार दाम धाम नार पार सातवोस गुण धार तारक से हजको । पुगल भरम छोर नाता ताता जोर तोर आतम धरम जोर भयो महातेजको,
जग भ्रमजाल मान ज्ञान ध्यान तार दान सत्ताके सरूप प्रान मोक्षमे रहेन(ज)को ॥५॥ अथ धर्मस्वरूपमाहसिद्धमत स्यादवाद कथन करत आद भंगके तरंग साद सात रूप भये है, अनेकंत माने सत कथंचित रूप ठंत मिथ्यामत सब हंत तत्त्व चीन लये है।
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