SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आर्य समाज के ला० देवराज और मुन्शीरामजी से वार्तालाप प्रयत्न एकदेशी पदार्थ में ही होते हैं, सर्व व्यापक या सर्वदेशी में नहीं । परन्तु स्रष्टा के लिये इच्छा और प्रयत्न दोनों ही अपेक्षित हैं । बिना इच्छा और प्रयत्न-क्रियाशीलता के किसी वस्तु का सर्जन हो नहीं सकता । और ईश्वर के जो स्वाभाविक गुण वर्णन किये गये हैं उनको देखते हुए तो उसमें इच्छा और क्रिया दोनों ही सम्भ नहीं । पूर्ण काम होने से उसमें किसी प्रकार की इच्छा नहीं, और सर्व व्यापक और निराकार होने से वह क्रिया प्रयत्न शून्य है । इसके अतिरिक्त जो पदार्थ सर्वथा निराकार है, कभी साकार होता ही नहीं वह सर्जक कैसे हो सकेगा यह भी एक विचारणी तथ्य है, लोक में कभी किसी अशरीरी को कोई वस्तु बनाते नहीं देखा, जो भी कार्य हम देखते हैं वह शरीर वाले का ही किया हुआ देखा जाता है फिर सर्वथा शरीर रहित ईश्वर को सृष्टि का विधाता कैसे माना जाय ? जबकि इसके लिये कोई अवाधित प्रमाण न हो । कारण कि अशरीरी में इच्छा और प्रयत्न दोनों ही सम्भव नहीं हो सकते यदि दुर्जनतोष न्याय से उसमें इच्छा और प्रयत्न मान भी लिये जायँ तो फिर यह प्रश्न उठता है कि सृष्टि रचना में हेतुभूत ईश्वर के इच्छा और प्रयत्न नित्य हैं या कि अनित्य ? यदि इनको नित्य माना जाय तो सृष्टि के हेतुभूत ईश्वर के इच्छा प्रयत्न सदा रचना ही करते रहेंगे, प्रलय कभी न होगी एवं प्रलय के कारणभूत ईश्वर की इच्छा प्रयत्न से सदा प्रलय ही संभव होगी, उत्पत्ति नहीं। $ परन्तु ईश्वर को सृष्टिकतो मानने वाले सृष्टि और प्रलय दोनों को स्वीकार करते और इन दोनों का कारण भी ईश्वर को ही मानते हैं, और यदि इनको अनित्य स्वीकार किया जाय तो वे उत्पत्ति और विनाश वाले होंगे, तब उनकी उत्पत्ति विनाश का कोई कारण भी ढूढना होगा ? परन्तु कारण हमेशा कार्य से पहले होता है, ईश्वर में इच्छा उत्पन्न करने वाला कारण यदि ईश्वर से पहले नहीं तो उसके समकालीन तो अवश्य होना चाहिये । आपके मतानुसार ईश्वर के समकालीन दो पदार्थ हैं, एक प्रकृति दूसरा जीव क्योंकि ये भी ईश्वर की तरह सत् अर्थात् नित्य हैं। परन्तु इनमें प्रकृति जड़ है, और जीव अल्पज्ञ है, तब ये दोनों सर्वज्ञ सर्वव्यापक सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर में इच्छा और प्रयत्न को उत्पन्न कर सकते हैं या कि नहीं ? इसका विचार आप स्वयं एकान्त में बैठकर करें । और यदि यह भी मान लिया जाय कि ईश्वर जीवों के शुभाशुभ कर्मों से प्रेरित हुआ उनके कर्म फल को भुक्ताने के लिये सृष्टि की रचना करता है, तो इसमें इस शंका को भी * ईश्वरोपि प्रयतत इतिचेत् ? न अशरीरस्य प्रयत्नासंभवात् । सर्वगताअपि ह्यात्मानः शरीर प्रदेशे एव प्रयत्नमारभन्ते न बहिः, अतः शरीरापेक्षः प्रयत्नः । [ शास्त्रदीपिकायां पार्थ सारमिश्रः १-५] ईश्वरेच्छायानित्यत्वे सृष्टि कारणी भूतेच्छाया अपि नित्यत्वात्, सदा सृष्टि स्थिति प्रसंगात् प्रलयो न स्यादेव, एवं प्रलयकारणी भूतेच्छाया नित्यत्वात् प्रलय एव तिष्ठेन्न सृष्टिरित्यपि दोषोऽनुसन्धेयः" [शास्त्रदीपिका टीकायां सुदर्शनाचार्यः पंचनदीयः] पा० १ सू०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy