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अध्याय २६
साम्प्रदायिक संघर्ष, प्रत्यक्ष रूप में
कोई भी पंथ या सम्प्रदाय हो उसके अच्छे या बुरे संस्कार जब एक बार जनता के हृदय में बैठ जाते हैं तब उनका निकालना बहुत कठिन हो जाता है । और यदि कोई उन अशुद्ध संस्कारों को निकालने का यत्न करता है तो अबोध जनता और उसके नेता लोग हाथ धोकर उसके पीछे पड़ जाते हैं । उनके हृदय पर छाया हुआ अज्ञान जन्य अन्धकार का पर्दा उन्हें वस्तु तत्त्व के भान से वंचित कर देता है, अतः वे हित को अहित और अहित को अपना हित समझते हुए मार्गदर्शन को उन्मार्गगामी कहने व मानने में भी संकोच नहीं करते । परन्तु ऐसी परिस्थिति में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि जिनके विवेक चक्षु सर्वथा बन्द न होकर कुछ खुले भी रहते हैं, तब ऐसे लोगों को यदि कोई सच्चा मार्गदर्शक मिल जावे तो वे उसके बतलाये हुए मार्ग को अपनाने भी लगते हैं । पंजाब की भूमि में कई सदियों से जैन धर्म के सूर्य को ढूंढ़क पंथ के बादलों ने आच्छन्न कर रखा था । दूसरे शब्दों में प्राचीन जैनधर्म पर सर्वेसर्वा अधिकार ढूंढक पंथ या सम्प्रदाय ने जमा लिया था, लोग प्राचीन जैनधर्म के स्वरूप से विलकुल अज्ञात हो चुके थे, उसके स्थान में ढूंढ़क पंथ को ही वे वास्तविक जैनधर्म समझ रहे, और मान रहे थे । ऐसी दशा में जैन धर्म के प्रतिष्ठापक किसी सच्चे धर्मनेता को इस प्रकार के फिरकावासित मानस को बदलने के लिये कितना परिश्रम करना होगा इसकी कल्पना सहज ही में की जा सकती है, महाराज श्री आत्मारामजी ने प्राचीन जैन धर्म पर छाये हुए ढंढ़क पंथ के पर्दे को दूर हटाने के लिये कितनी कठिनाइयों का सामना किया, और किस प्रकार उन पर विजय प्राप्त करने के लिये अपने बुद्धिबल और शारीरिकवल का उपयोग किया, तथा उस समय के पंथ नेताओं ने उनको कितने उपसर्ग देने की चेषा की, यह सब कुछ उन साम्प्रदायिक संस्कारों को ही आभारी है, जिनको अबोध जनता के हृदय से निकालकर दूर फैंक देने का श्री श्रात्मारामजी संकल्प किये हुए थे।
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