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________________ नवयुग निर्माता पुरोxxx अच्छेहि सण्हेहिं ग्यणामएहि अच्छ रस तंडुलेहि अट्ट मंगले प्रालिहइ तंजहासोस्थिय जाब दप्पणं तयाणंतरं चणं कुडुच्छुओं पग्गहिय पयत्तेणं धूवंदाउण जिनवराणं अट्ठसय विसुद्ध गंथजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं महाबित्तेहिं संथुणइ" [पृ. २५४-५६] __ भावार्थ (१) क.-[ सुधर्म कल्पस्थित सूर्याभ विमान के विषय में गौतमस्वामी के पूछने पर सूर्याभदेव विमान का वर्णन करते हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी कहते हैं-हे गौतम! सूर्याभदेव विमान में ] सुधर्मा सभा के उत्तर पूर्व अर्थात् ईशान कोण में एक विशाल सिद्धायतन है, उस सिद्धायतन के बीचों बीच एक विशाल मणिपीठिका है, उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देव छंदक है उसके ऊपर जिनके शरीर की ऊंचाई जितनी ऊंची जिनदेवों की १०८ प्रतिमायें विराजमान हैं [ इन प्रतिमाओं का वर्णन वहां विस्तार से दिया हुआ है ] ख-उन प्रत्येक जिन प्रतिमाओं के पीछे मालायुक्त श्वेतछत्र लिये हुए छत्रधारी प्रतिमायें हैं और दोनों तरफ मणि-कनकमय चामरों को ढुलाती हुई चामरधारी प्रतिमायें हैं तथा उन शाश्वती जिन प्रतिमाओं के आगे एक सौ आठ २ घंटे, चन्दन भृङ्गार आदि अनेक पदार्थ-पूजा के सामान वहां प्रत्येक 'प्रतिमा के आगे रक्खे हुए हैं, इस पूजा सामग्री के अतिरिक्त उस सिद्धायतन में सुगन्धियुक्त धूप से मघमघाते १०८ धूपदान भी रखे हुए हैं। (२) क.- तब तत्काल जन्मा हुआ सूर्याभदेव, आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छवास भाषा और मन पर्याप्ति के द्वारा शरीर की सर्वाङ्ग पूर्णता प्राप्त कर लेने के अनन्तर वह देव इस प्रकार विचार करने लगा–यहां आने पर मेरा प्रथम कर्तव्य क्या है ? इसके पीछे निरन्तर करने योग्य मुझे क्या है ? एवं तत्काल और भविष्य में जो सदा के लिये हितकारी, सुखकारी और श्रेय रूप हो ऐसा मुझे क्या करना चाहिये ? ख.-सूर्याभदेव के ऐसा विचार करने पर वहां तुरत ही उसके सामानिक सभा के देव वहां हाजिर हो जाते हैं और हाथ जोड़कर कहते हैं-हे देवानुप्रिय ! अपने इस विमान में एक विशाल सिद्धायतन है उसमें जिन [जिनेन्द्रदेव ] के शरीर की ऊंचाई जितनी ऊंची ऐसी १०८ जिन प्रतिमायें विराजमान हैं तथा अपनी सुधर्मा सभा में एक विशाल माणवक स्तम्भ है उसमें सुरक्षित वज्रमय गोल डों में जिनदेवों की दाढ़े प्रतिष्ठित हैं जोकि आपको तथा हम सबको अर्चनीय वन्दनीय पूजनीय और उपासनीय हैं। आभरणारोपणं करोति कृत्वा xxx जिन प्रतिमानां पुरतः रजितमयैः अच्छरसतंडलैः अष्टावष्टौ मंगलान्यालिखति तद्यथा-स्वस्तिकः यावत् दर्पण:, तदनन्तरं च xxx वैडूर्यमयं धूप कडुच्छकं प्रगृह्य प्रयत्नतः धूपं दत्वा जिनवरेम्यः अष्टशत विशुद्ध ग्रन्थ युक्तैः अपुनरुक्तैः महावृत्तैः संस्तौति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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