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कर होते हैं। होती है। हर चाया और अवसर्पिणी
के अनुसार साधुओं की भाँति श्रावकों के लिये भी श्री अरिहंत परमात्माओं की भावपूजा तथा द्रव्यपूजा निरंतर आवश्यक है। इसके अनुसार नहीं चलने वाले साधु तथा श्रावक को शास्त्रकारों ने प्रायश्चित का भागीदार बताया है। जहाँ तीर्थ होता है वहाँ पूजा होती ही है : - भरत और ऐरवत क्षेत्र में प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में एकेक चौबीसी होती है। हर चौबीसी में चौबीसचौबीस तीर्थंकर होते हैं। ऐसी अनंती चौबीसी अतीत में हो गई और भविष्य में होगी । महाविदेह क्षेत्र में तो श्री तीर्थंकरों का विरह ही नहीं है । अतः जब जब और जहाँ जहाँ उन परमोपकारी तीर्थपतियों का तारक तीर्थ प्रवर्तता है तब तब उन उन स्थानों पर श्री जिन मंदिरों और श्री जिन मूर्तियों तथा उनकी उपासना का अस्तित्व स्थायी रूप से है । इसका कारण यह है कि श्री जिनेश्वरदेवों के पवित्र मार्ग में श्री जिनेश्वर देवों की पूजा को सम्यक्त्व शुद्धि का एक परम अंग और आत्मोन्नति का एक अद्वितीय साधन माना गया है । श्री तीर्थंकरों का उपकार :
श्री तीर्थंकर देवों का जगत् पर असीम उपकार है। समस्त विश्व का हित करने की सर्वोत्तम भावना में से श्री तीर्थंकर पद का जन्म हुआ है। इसलिये उन्होंने अनेक भवों से शुभ प्रयत्न कर तीसरे भव में जिन-नाम कर्म की निकाचना की होती है। अंतिम भव में वे विश्ववंद्य पुण्य कर्म का उपयोग करते समय विश्व के समस्त प्राणियों के लिये हितकारी धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं ।
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