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ज्ञान का साधन मानना तथा मूर्ति को अज्ञान बढ़ाने वाली और बुद्धि को जड़ करने वाली समझना, कितनी भूल है ? कोई कहेगा कि ग्रन्थों से तो ज्ञान प्राप्त होने का प्रत्यक्ष अनुभव होता है पर मूर्ति से ज्ञान प्राप्ति की प्रतीति कहाँ होती है ? उसका उत्तर यह है कि ग्रन्थों से ज्ञान प्राप्त होता है परन्तु किसको ? जो ग्रन्थ को समझने में समर्थ हो उसको; सबको नहीं । गाय, भैंस, कुत्ते आदि को ग्रन्थों का ज्ञान कैसे नहीं होता ? गाँव के प्रशिक्षित लोगों को ग्रन्थों से ज्ञान क्यों नहीं होता ? मूर्ति के संबंध में ऐसा ही है ।
जैसे भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के बाद ग्रन्थ का अध्ययन करने वाले को ग्रन्थ से ज्ञान होता है, वैसे ही मूर्ति का विधिपूर्वक नियमित अर्चन पूजन करने वाले को ही मूर्ति से ज्ञान होता है ।
जैसे भाषा के अध्ययन में अनेक कक्षाएँ हैं और कितनी ही कक्षाएँ पार करने वाले को ही भाषा का ज्ञान होता है और ग्रन्थ समझने की शक्ति आती है पर कक्का या बाराक्षरी पढ़े व्यक्ति को, प्रौढ लेख समझने की शक्ति नहीं आती, वैसे ही मूर्ति को केवल चंदन, पुष्प चढ़ाने वाले को अथवा उसके चरणों पर गिरने वाले को मूर्ति का रहस्य समझने की शक्ति नहीं प्राती है ।
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लोगों में जो मूर्ति पूजा प्रचलित है वह मूर्ति पूजा को पहली या दूसरी पुस्तक है । इससे आगे बढ़ने का है । जो धैर्यपूर्वक पहली कक्षा को पारकर ऊपर की कक्षा पर चढ़ते जाते हैं उनको मूर्तिपूजा का अलभ्य लाभ प्राप्त हुए बिना नहीं
रहता ।
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