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(ii) "; "चित्तम्-अन्तःकरणं, तस्य भावः कर्म वा, प्रतिमालक्षणम् अर्हच्चैत्यम् । अर्हतां प्रतिमाः प्रशस्तसमाधि-चित्तोत्पादकत्वात् चैत्यानि भण्यन्ते ।"
चित्त यानी अन्यःकरण, अन्तःकरण का भाव अथवा अन्तःकरण की क्रिया, उसका नाम चैत्य है । अरिहंतों की प्रतिमाएँ अन्तःकरण की प्रशस्त समाधि को पैदा करने वाली होने से 'चैत्य' कहलाती हैं।
चैत्य शब्द का दूसरा अर्थ"चैत्यं जिनौकस्तब्दिबम् ।"
श्री जिनगृह अथवा श्री जिनबिम्ब-ऐसा भी अर्थ कोषकारों ने किया है। उस चैत्य को वन्दन प्रादि करने से शुभ भाव, की वृद्धि होती है, शुभ भाव की वृद्धि से उत्तरोत्तर सम्मग्दर्शनादि विशुद्ध धर्मों की प्राप्ति होती है और इससे परंपरा से सर्व कर्म की मुक्ति आदि महत् कार्य भी सिद्ध होते हैं ।
प्रर्हत् चैत्य यानी श्री अरिहंतों की प्रतिमानों को वन्दनपूजन आदि करने से सम्यग्दर्शनादि धात्मगुरणों की प्राप्ति और कर्मक्षय की सिद्धि होती है, ऐसा श्रीमद् हरिभद्रसूरि म० मादि रिपुंगवों ने ही फरमाया है ऐसा, नहीं, परन्तु पूर्व के पूर्वधर-भगवान् श्री जिनभद्र गरिण क्षमाश्रमणजी, दश पूर्वधर-भगवान् श्री उमास्वातिजी और चौदह पूर्वधर ध तकेवली भगवान् श्री भद्रबाहु स्वामीजी आदि अनेक सूरिपुरंदरों ने भी महाभाष्य, पूजा प्रकरण, आवश्यक नियुक्ति प्रादि महाशास्त्रों में भी ऐसा फरमाया है । इतना ही नहीं, परन्तु मूल आवश्यक सूत्रकार गणधर भगवान् श्री सुधर्मास्वामीजी महा---
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