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प्रतिध्वनि
को अभी करनी का फल चखा दं, इस नाव को उलट दूं?'
आकाशवाणी सुनकर यात्री घबराए। दुष्टों ने संत के पैर पकड़े और आँसू बहाकर क्षमा माँगी।
पुनः आकाशवाणी हुई–'संत ! बोलो ! तुम चाहो तो अभी इस नाव को उलट दूं ।' ___संत ने आँखें खोली--और विनम्र स्मित के साथ आकाश की ओर देखकर कहा- 'देव ! तुम उलटना ही चाहते हो तो, इन सब की बुद्धि को उलट दो। नाव को उलटने से क्या होगा ?'
वास्तव में तो मनुष्य की कुबुद्धि ही उसे दुष्टता की ओर प्रेरित करती है। फिर उस कुबुद्धि को ही मिटाना चाहिए, कुबुद्धिवान को मिटाने से क्या लाभ ?
भारतीय संस्कृति का यही अमर संगीत है कि मनुष्य ! अपनी बुद्धि को निर्मल रख ! अपने मन को पवित्र रख ! तेरा कर्म तो मात्र मन और बुद्धि का प्रतिविम्ब है। मन कुआँ है, कर्म जल है। कुएं में यदि मलिन और खारा पानी होगा तो कर्म के डोल में साफ
और मीठा पानी कहाँ से आयेगा ? इसलिए सर्वप्रथम मानव को यही संदेश दिया गया हैमा ते मन स्तत्रगान मा तिरोभूत ।
-अथर्ववेद ८।११।७ मनुष्य ! सावधान रह ! तेरा मन कभी कुमार्ग में न
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