________________
(
८)
की तीसरी कहानी 'प्रतिध्वनि' सहसा ही मेरे मन को विभोर कर गई । मुझे लगा, संपूर्ण पुस्तक का सार इस एक कहानी में संक्षिप्त हो गया है, और पूरी कहानी 'प्रतिध्वनि' इन चार अक्षरों में बंध गई है ।
सचमुच हमारा बाह्यजगत, भौतिक संसार हमारी अन्तरध्वनि की एक प्रतिध्वनि मात्र है । जैसी ध्वनि, जैसा चिंतन और जैसी भावनाएँ हमारे भीतरी संसार मैं उठती हैं बाह्य-संसार से वैसी ही प्रतिध्वनि गूंज उठती हैं, जैसा बिम्ब होगा दर्पण में वैसा ही प्रतिबिम्ब झलकेगा | जैसी हमारी अन्तरध्वनि होगी, संसार की इन घाटियों में वैसी ही प्रतिध्वनि गूंजेगी । इस पुस्तक की कहानियाँ ही क्या, किन्तु संसार की समस्त कहानियाँ और समस्त उपदेश आखिर प्रतिध्वनि के इसी सूत्र का भाष्य ही तो करते हैं । अतः इस पुस्तक का यह नाम मुझे बहुत ही सार्थक और अपने कथ्य को व्यक्त करनेवाला
लगा ।
पुस्तक में कुल ७३ कहानियाँ है, और प्रायः हर कहानी अपने कथ्य को काफी स्पष्टता से व्यक्त करती है । पाठक को मस्तिष्क पर कुछ भार दिये विना भी वह सहजगम्य हो जायेगा ऐसा मेरा विश्वास है ।
आशा करता हूँ यह कहानी संग्रह पाठकों को रुचिकर, रसप्रद और शिक्षाप्रद प्रतीत होगा ।
जैन भवन
३० जुलाई, आगरा-२
- श्रीचन्द सुराना 'सरस'
Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org