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________________ १८४ प्रतिध्वनि भाई सो भाई लरै रिपु से पुनि मित्रता मित्र तजै दुख जोई । ता धन को बनिया है गिन्यो न, दियो, दुख देश के आरत होई । स्वारथ आर्य, तुम्हारो ही है तुमरै सम और न या जग कोई । जिस धन संपत्ति के लिए-कैकेयी ने राम को वनवास दिलाया, पाण्डव-कौरवों ने अठारह अक्षोहिणी सेना का संहार कर डाला, और जिस धन के लिए बड़े-बड़े युद्ध, नरसंहार और प्रलय होते रहे, उस धन के मोह (बनिया होकर भी) भामाशाह ने त्याग कर देश की सेवा के लिए अर्पण कर दिया-सचमुच यह एक महान् त्याग है। भामाशाह के पिता भारमल भी पहले राणाप्रताप के मंत्री थे। उनके स्वर्गवास पर भामाशाह को मंत्री पद पर नियुक्त किया गया । भामाशाह एवं उनका भाई ताराचन्द दोनों ही राणा के विश्वस्त सेवक व वीर योद्धा थे । भामाशाह का हृदय बहुत ही उदार था। हल्दीघाटी के युद्ध में भामाशाह ने भी अपनी तलवार का चमत्कार दिखाया था।* * हल्दीघाटी का यह विख्यात युद्ध सन् १५७६, १८ जून को एक घड़ी दिन चढ़े प्रारम्भ हुआ और सायंकाल तक समाप्त होगया था।-देखें 'चांद' वर्ष ११-पूर्ण संख्या १२२, पृष्ठ ११८ Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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