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प्रतिध्वनि
घटना है लगभग तीन शताब्दी पूर्व आगरा में कविवर पं० बनारसीदास जी के युग की । एकबार कोई साधु आये । साधु के क्षमा और तपस्या आदि गुणों की प्रशंसा सुनकर कविवर भी दर्शन करने गए। कुछ बात चीत के बाद विनम्रता पूर्वक बोले-"क्षमा-सिंधू ! क्या मैं आप श्री का शुभ नाम जान सकता हूँ।'
"इस देह को शीतलप्रसाद कहते हैं ?" ।
कविवर ने नाम सुनकर अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त की, पर यथानाम तथागुण की कसौटी करने के लिए वे कुछ देर बाद फिर साधु जी से नाम पूछ बैठे । साधु ने कुछ अन्यमनस्कता के साथ नाम दुहरा दिया। थोड़ी देर बाद फिर उन्होंने नाम पूछा, तो साधु झुंझला कर बोले
— "क्या घनचक्कर आदमी हो, दसबार कह दिया हमारा नाम है शीतलप्रसाद ! शीतलप्रसाद !” इस बार कविवर कुछ देर तक चुप रहे । थोड़ी देर बाद उठकर चलने लगे, तो फिर हाथ जोड़ कर नाम पूछ बैठे-महाराज ! आपका नाम एकबार और... !''
इस बार साधु आगबबूला हो गये, बोले- "पूरे गधे हो तुम ! पचास बार कहदिया हमारा नाम है शीतल प्रसाद ! शीतलप्रसाद ! शीतलप्रसाद ! पर तुम हो कि दिमाग चाट रहे हो !"
साधु जी का यह प्रचण्ड कोप देखा तो वे बोल पड़े
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