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________________ १७२ प्रतिध्वनि घटना है लगभग तीन शताब्दी पूर्व आगरा में कविवर पं० बनारसीदास जी के युग की । एकबार कोई साधु आये । साधु के क्षमा और तपस्या आदि गुणों की प्रशंसा सुनकर कविवर भी दर्शन करने गए। कुछ बात चीत के बाद विनम्रता पूर्वक बोले-"क्षमा-सिंधू ! क्या मैं आप श्री का शुभ नाम जान सकता हूँ।' "इस देह को शीतलप्रसाद कहते हैं ?" । कविवर ने नाम सुनकर अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त की, पर यथानाम तथागुण की कसौटी करने के लिए वे कुछ देर बाद फिर साधु जी से नाम पूछ बैठे । साधु ने कुछ अन्यमनस्कता के साथ नाम दुहरा दिया। थोड़ी देर बाद फिर उन्होंने नाम पूछा, तो साधु झुंझला कर बोले — "क्या घनचक्कर आदमी हो, दसबार कह दिया हमारा नाम है शीतलप्रसाद ! शीतलप्रसाद !” इस बार कविवर कुछ देर तक चुप रहे । थोड़ी देर बाद उठकर चलने लगे, तो फिर हाथ जोड़ कर नाम पूछ बैठे-महाराज ! आपका नाम एकबार और... !'' इस बार साधु आगबबूला हो गये, बोले- "पूरे गधे हो तुम ! पचास बार कहदिया हमारा नाम है शीतल प्रसाद ! शीतलप्रसाद ! शीतलप्रसाद ! पर तुम हो कि दिमाग चाट रहे हो !" साधु जी का यह प्रचण्ड कोप देखा तो वे बोल पड़े Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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