SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैसी दृष्टि : वैसी सृष्टि १२६ गुरणानुराग से छलछला रहा है, उसे कहीं भी द्वेष, और शत्रुता का दर्शन भी नहीं हो पाता । भला सर्वत्र भलाई देखता है, बुरा बुराई । एक संस्कृत सूक्ति है सरलः पश्यति सकलं सर्व सरलेन भावेन । सरल सब कुछ सरल भाव से सरल ही देखता है, और कुटिल सबको कुटिल मानता है । महाभारत युग की एक घटना है - श्रीकृष्ण ने एक बार धर्मराज युधिष्ठिर को एक काम सोंपा - "धर्मराज ! तुन द्वारिका के समस्त दुर्जनों की एक तालिका बनाकर लाओ !" धर्मराज ने योगेश्वर की आज्ञा शिरोधार्य कर अपना काम प्रारम्भ कर दिया । उधर दुर्योधन को भी श्रीकृष्ण ने एक आदेश दिया"नगर के समस्त सज्जनों की सूची तैयार करके लाओ ।' और दुर्योधन भी जुटगया अपने कार्य में । कुछ दिनों बाद दोनों ही खाली सूची पत्रक लिए श्रीकृष्ण के समक्ष उपस्थित हुए । श्रीकृष्ण ने पूछा"युधिष्ठिर ! क्या तुमने अपना कार्य पूरा कर लिया ?" विनय और संकोच के साथ धर्मराज ने कहा- "महाराज ! अब तक तो मुझे ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिला जिसे सचमुच दुर्जन कहा जा सकता हो, मैं देखता हूं, तो हर जन में सज्जनता के दर्शन होते हैं, फिर कैसे उसे दुर्जन की सूची में चढाऊं ।” Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy