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________________ अपने को जानना : परमात्मा को जानना है | ८३ काले-गोरे, स्थूल या पतले-दुबले होने को देखकर कहते हैं-मैं काला हूँ, गोरा हूँ, स्थूल हूँ या दुबला-पतला हूँ । अथवा मन और बुद्धि को अत्यधिक मननशील-चिन्तनशील, निर्णायक व विवेकी अथवा मनन-चिन्तन में या निर्णय में या विवेक में असमर्थ देखकर कह देते हैं-मैं तीक्ष्ण मन, चित्त या प्रखर बुद्धि हूँ, अथवा मैं मन्दमति, मन्द-मनस्वी या विचारशक्ति. हीन, अविवेकी बुद्धि या मन वाला हूँ। जो व्यक्ति शरीरादि को आत्मा मानता-जानता है, वह बहिरात्मा है। वस्तुतः शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जड़ हैं, आत्मा चैतन्यमूर्ति है । शरीरादि न तो स्वयं अपना ज्ञान कर सकते हैं और न ही दूसरे पदार्थों को जान सकते हैं, जबकि आत्मा स्वयं को भी जानता है और दूसरे पदार्थों को भी जानता है । वह स्व-पर-प्रकाशक है। अन्य पदार्थों के विषय में जितनी रुचि, उतनी आत्मा में नहीं ___ आत्मा को यथार्थ रूप से न जानने वाले लोगों में जितनी प्रीति और अहंता-ममता अपने शरीर तथा शरीर से सम्बन्धित स्वजनों के प्रति अथवा अपनी प्रसिद्धि या प्रशंसा में, अथवा पूण्य कार्यों के करने में जितनी रुचि, लगन होती है, उतनी शुद्ध आत्मा पर या आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने में नहीं होती। वह संसार की इसी मोहमाया या भ्रमजाल के चक्कर में पड़ा रहकर जिन्दगी भर में आत्मा को जान-समझ नहीं पाता । स्वयं आत्मा होते हुए भी अपने विषय में शंका कई लोग कहते हैं कि आत्मा को क्या स्वयं जाना जाता है ? वह प्रत्यक्ष दिखाई दे तो हम उसे जान लें, पहचान लें। आश्चर्य तो तब हो । है, जब 'मैं हैं' यह कहने वाला आत्मा ही अपने अस्तित्व के विषय शंका करता है और स्वयं कैसा हूँ, कैसा नहीं ? इस विषय में जानने की कोई रुचि, या लगन नहीं रखता। कोई भी जड़ पदार्थ कभी किसी प्रकार की शंका या प्रश्न नहीं उठा सकता, क्योंकि जड़ में ज्ञान शक्ति ही नहीं है। अतः जिसने शंका की है, वही आत्मा है, ज्ञान गुणयुक्त चैतन्य द्रव्य है । वह कहीं बाहर नहीं है, अपने अन्दर ही बैठा है, फिर भी कई लोग आत्मा को जानने के लिए बाहर पर्वतों, नदी-तटों, गुफाओं या तीर्थों में भटकते रहते हैं। ऐसे लोग अपने आपको जानने-पहचानने और ढंढ़ने के लिए दूसरे के पास या अन्यत्र जाते-आते हैं। जिस प्रकार कस्तूरी मृग अपने पास कस्तूरी होते हुए भी बाहर में उसकी सुगन्धि जानता मानता और खोजता है, उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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