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________________ अपने को जानना : परमात्मा को जानना है ! ८१ का सम्बन्ध नया-नया होता रहा है। फिर भी अनन्तकाल से आत्मा को पता नहीं कि मैं कौन हूँ ? मेरा स्वरूप क्या है ? इस विषय में मनुष्य अनभिज्ञ है। अपने आपको जानने की रुचि भी नहीं है सामान्य मानव की रुचि जितनी शरीर, इन्द्रिय विषयों तथा धन आदि पर-पदार्थों को जानने-समझने की है, उतनी आत्मा को तथा उसके स्वभाव और गुणों को जानने-समझने की नहीं है ।। आत्मा से अपरिचित व्यक्तियों का मानवजन्म निरर्थक अज्ञानी मानव मनुष्य-जन्म पाकर विषय-भोगों में तथा पूण्य में सूख मान कर उसके क्षणिक स्वाद को जानने-मानने में अपने अमूल्य आत्मारूपी रत्न को उसी तरह बेच देता है, जिस तरह अबोध बालक एक पेड़े के बदले लाखों रुपयों का रत्न दे देता है। वह महंगे मनुष्य-भव को पाकर आत्मा को जानने-समझने के बदले, विषय-भोगों में अपने बहुमूल्य जीवन को खो देता है। मानव शरीर पाना भी दुर्लभ है, उसमें भी अपने आप (आत्मा) को जानना-समझना तो महादुर्लभ है। ऐसे महामूल्य मनुष्य-जन्म को पाकर भी जो आत्मा की पहचान नहीं करता, वह मनुष्य-जन्म को व्यर्थ खोकर आत्मा के सम्बन्ध में अज्ञानी रहकर दुःखो होता है, श्रीमद् रायचन्द्रजी कहते हैं-यह प्रचुर पुण्य राशि के फलस्वरूप मानवदेह पाकर भी संसार चक्र का एक भी चक्कर कम नहीं कर पाता, वह पुनः पुनः संसार में जन्ममरण करता है। अतः मनुष्यजन्म की सार्थकता इसी में है कि मनुष्य आत्मा को यथार्थ रूप से जाने-समझे । जो मनुष्यजन्म पाकर आत्मा को जानता-पहचानता नहीं, और विषय-कषायों के बीहड वन में भटकता रहता है वह विषय लोलुपतावश कौए कुत्ते का-सा जीवन बिताता है। कई अज्ञजन चिन्तामणि-सम मानवदेह को दुराचार में, अज्ञान में, विषयवासना में, तथा विविध मदों में वृथा खो देते हैं। वे तो नाममात्र के १ बहुपुण्यकेरा पुज थी शुभदेह मानवनो मल्यो । तो ये अरे भवचक्रनो आंटो नहिं एके टल्यो । -अमूल्य तत्त्वविचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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