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एकाकी आत्मा : बनती है परमात्मा | ३८३
आत्मा के एकाकीपन के अभ्यास के लिए चिन्तन व्यवहारदृष्टि से आत्मा के अकेलेपन के लिए इस प्रकार चिन्तन एवं अभ्यास करे - 'मैं ( आत्मा ) अकेला ही बार-बार जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि आदि के रूप में कर्मानुसार महादुःखों का अनुभव करता आया हूँ । न तो मेरा कोई 'स्व' (अपने स्वजन, धन, साधनादि) है, न पर है कोई | मैं अकेला ही जन्मता-मरता हूँ । पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का फल भी मैं अकेला ही भोगूंगा । कर्मफल से प्राप्त अपने माने हुए कोई भी स्वजन या परजन, व्याधि, बुढ़ापा, मृत्यु आदि दुःखों से मेरी रक्षा नहीं कर सकते ।' इसके साथ ही आत्मा के साथ अकेलेपन के इस सूत्र का पुनः पुनः उच्चारण करे
"एगो अहमंसि, न मे अस्थि कोइ, नवाऽहमवि कस्सइ । एवं से गागिणमेव अप्पाणं समभिजाणेज्जा । "1
मैं ( आत्मा ) अकेला हूँ | मेरा अपना कहा जाने वाला कोई भी व्यक्ति, जीव या पदार्थ नहीं है । और मैं भी किसी दूसरे का नहीं हूँ । इस प्रकार व्यक्ति दीनताभाव को छोड़कर अपनी आत्मा को एकाकी समझे - जानें । आत्मा को इसी रीति से एकाकीपन में अभ्यस्त एवं अनुशासित करे | 2
आत्मा के एकत्व का यह सूत्र जब आत्मसातु हो जाता है, तब वह गृहस्थ या साधु समस्त झंझटों, कठिनाइयों, कलहों, झगड़ों, प्रपंचों, चिन्ताओं एवं समस्याओं से मुक्त हो जाता है; वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय या जागतिक समस्याओं और उलझनों से पर हो जाता है । फिर वह अपनी मस्ती में शुद्ध आत्मभाव में रमण करता हुआ, अति शीघ्र परमात्मभाव को प्राप्त कर लेता है ।
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एकत्वभाव से अभ्यस्त : सहायत्यागी आत्मनिर्भर
एकाकी भाव से अभ्यस्त वह व्यक्ति फिर किसी से सहायता के लिए हाथ नहीं पसारता, न ही सहायता के लिए ताकता है । वह परमात्मा से
१ आचारांग सूत्र श्र - १ अ-८, उ-५
२ तुलना कीजिए -
एगो मे सासओ (सासदो) अप्पा, नाण- दंसण-संजुओ (संजुदा ) । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ।
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- नियमसार SS
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