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________________ ३७६ / अप्पा सो परमप्पा विषय से उलझन आएगी, तब कोई न कोई प्रेरणा; अन्तःस्फुरणा, आदेशसंदेश या आज्ञा अव्यक्तरूप से परमात्मा की ओर से मिलेगी। जैसे कि ऋग्वेद में भी परमात्मा से अन्तःकरण को पवित्र करने और कल्याणपथ का निर्देश करने की प्रार्थना की गई है'ओ३म् विश्वानि देव ! सवितुर्दुरितानि परासुव, यद्भद्र तन्न आसुव ।1 हे सूर्यसम तेजस्वी ओ३म्रूप प्रभो ! हमारे समस्त पापों को दूर कर और जो भद्र कल्याण मार्ग या विचार हो, उसे हमें प्रदान कर ! जिससे हमारे अन्तःकरण पवित्र बनें। अन्तःस्थित परमात्मा ही काम, क्रोध-मोहादि विकारों से रहित, कर्म, काया, मोहमाया आदि से सर्वथा शून्य निष्कलंक शुद्ध पवित्रात्मा हैं, उन्हीं की प्रेरणा और अनुभूतियों से आत्मार्थी पवित्रात्मा बन सकता है। फिर परमात्मा निराकार, निरिन्द्रिय, अशरीरी और अपायरहित हैं, इसलिए उनके सान्निध्य से आत्मार्थी को भी शरीरादि परभावों, तथा इन्द्रियविषयों के प्रति रागद्वोष को, एवं कामक्रोधादि भावकर्मरूप विभावों-अपायों को जीतने, तथा उनका व्युत्सर्ग करने की बार-बार अन्तःप्रेरणा, शक्ति और आत्मभावों में लीन रहने की स्फुरणा मिल सकती है। और एक दिन अन्तहदयस्थित परमात्मा की परोक्ष सहायता से अपनी आत्मा को भी उनके समान शुद्ध, बुद्ध, मुक्त परमात्मा बना लेता है । १ ऋग्वेद ५/८२/५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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