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________________ ३४० | अप्पा सो परमप्पा रचना (संहनन), तथा उनके अतिशयों को ही अपना स्वरूप जान-पहचान ले । उसी को अपना स्वरूप मान ले। उनके स्थूलस्वरूप को देखना जिनदर्शन' या जिनेन्द्र भगवान् को देखना या पहचान करना नहीं है। जो व्यक्ति वीतराग अरहन्त परमात्मा की शरीरसम्पदा आदि स्थूल रूप में ही अटक कर रह जाते हैं, वे स्थूलदृष्टि व्यक्ति न तो परमात्मस्वरूप को यथार्थतः जान-पहचान सकते हैं और न ही शुद्ध आत्मस्वरूप को। जिनकी स्थूलदष्टि वीतराग परमात्मा (जिनेन्द्र) की आत्मिक गुगसमृद्धि की ओर नहीं जाती ; वे अपने जैसा ही भौतिक वैभवसम्पन्न अरहंत परमात्मा को समझ लेते हैं। उनकी प्रतिकृति को भी वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करते हैं और प्रभु से वैसी ही भौतिक ऋद्धि-समृद्धि पाने की कामना (प्रार्थना) करते हैं। व्यक्ति परमात्मस्वरूप को अपना आत्मस्वरूप कब समझता है ? परमात्मा के स्वरूप को व्यक्ति अपना स्वरूप तभी समझ सकता है, जब वह परपदार्थ को अपना न समझे, एकमात्र परमात्मा को ही अपना समझे। जब तक व्यक्ति परपदार्थों पर से 'मैं' और 'मेरे' की मिथ्याधारणा को नहीं मिटा देता, तब तक परमात्मा के स्वरूप और आत्मा के शुद्ध स्वरूप का निश्चय नहीं हो सकता। अज्ञान और मोह से प्रेरित होकर लोग कह देते हैं--'यह मेरा घर है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पत्नी है, यह मेरी कार है।' क्या ये सब (पर) पदार्थ उनके अपने हैं ? जिसे वे अपना घर, पुत्र या कार आदि कहते हैं, यदि उनके हैं तो उनसे कभी अलग नहीं होने चाहिये । मगर घर, पुत्र, कार आदि सब कभी न कभी उनसे अलग हो ही जाते हैं। जिस 'कार' को व्यक्ति अपनी कहता है, वह भी एक्सीडेंट होने पर बिलकुल नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है, अपनी कहने वाले व्यक्ति से विलग हो जाती है। यह शरीर जिसे वह अपना कहता है, वह भी तो आयुष्य पूर्ण होते ही उससे छूट जाता है। मान लो, कोई व्यक्ति घर को अपना मानकर सरकार को हाउस टेक्स न दे तो सरकार भी उसे उस घर से बाहर निकाल देगी। दीर्घदृष्टि से सोचते हैं तो स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि घर न तो उसका है, न सरकार का है, वह तो इंट, चूने, पत्थर आदि जड़ पदार्थों का है। यही हाल शरीर, पुत्र, कार आदि का है । अपने आपको अपने में न पाने वाला मोक्ष नहीं पाता अतः जब तक व्यक्ति अपने आपको नहीं पहचान पाता, तब तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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